
बदलते समय के साथ अनुकूलन जरूरी
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
नाले का पानी स्थिर होता है, इसलिए कीचड़ युक्त बदबूदार होता है, किन्तु नदी और झरने प्रवाहमान होते हैं, फलतः उनमें न गंदगी होती है न कीचड़ वरन् अपने में स्वच्छ जल सँजोये रह कर प्यासों को शीतलता प्रदान करते रहते हैं। मनुष्य के साथ भी यही बात लागू होती है। आज वह जिस स्थिति से गुजर रहा है, उसमें एक प्रकार का ठहराव आ गया है और इस कारण उसमें स्वयं में असंतोष, समाज में अशाँति और राष्ट्र में अराजकता का वातावरण पैदा हो गया है। जब तक उसके जीवन का पड़ाव गतिमान जलराशि का रूप धारण नहीं कर लेता और बदलते समय के अनुरूप स्वयं को, विचार को बदलना नहीं सीखता, तब तक उसका निज का जीवन एवं समाज घृणित स्थिति में ही बने रहेंगे। बल्कि यह कहना अधिक समीचीन होगा कि इससे अस्तित्व संबंधी खतरा भी पैदा हो सकता है।
इसी बात को “दि टर्निंग प्वाइंट” के विद्वान लेखक फिटजार्फ क्रापा ने अपनी पुस्तक के “दि सिस्टस व्यू ऑफ लाइफ” (पृ.214-215) अध्याय में भली भाँति समझाया है। वे प्रस्तुत अध्याय में लिखते हैं कि शरीर विज्ञान का एक निश्चित नियम है। उसकी प्रत्येक प्रणाली में वातावरण के परिवर्तन के अनुसार परिवर्तन होता रहता है और इस प्रकार वह अपने तंत्रों को परिस्थिति के अनुरूप अनुकूलित करते रह कर स्वयं को जीवित बनाये रहता है। इस प्रकार की अनुकूल क्षमता न सिर्फ मनुष्य में होती है, वरन् पेड़-पौधों समेत हर प्रकार के प्राणियों में पायी जाती है। वे कहते हैं कि मनुष्य जैसे विकसित प्राणों में प्रतिकूलताओं से अपनी रक्षा के लिए तीन प्रकार के अनुकूलन की क्षमता होती है, जो लम्बी अवधि के वातावरण परिवर्तन के क्रम में क्रमिक रूप से क्रियाशील रहती है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति समुद्र तली से ऊँचे पहाड़ की चोटी पर जाता है, तो वह हाँफने लगता और हृदय धौंकनी की भाँति चलने लगता है, पर यह सभी परिवर्तन उत्क्रमणीय (रिवर्सिबल) होते है एवं वातावरण के बदलते ही व्यक्ति की स्थिति पूर्ववत हो जाती है। यदि व्यक्ति उसी दिन नीचे आ जाय, तो वह पुनः सामान्य हो जाता है। इस प्रकार का अनुकूल दबाव (स्ट्रेस) का एक भाग है। यह दबाव जन्तु के किसी एक अथवा अनेक प्रणालियों में खिचाव पैदा करता है, जिसका मान अधिकतम होता है। परिणाम स्वरूप समग्र तंत्र में यह स्थिति पैदा हो जाती है जिससे वह अन्य किसी दबाव स्ट्रेस के प्रति अनुकूलन क्षमता खो देता है। उदाहरण के लिए ऊँचे पहाड़ की चोटी पर स्थित व्यक्ति वहाँ पर बनी किसी सीढ़ी पर और ऊँचा चढ़ सकने में सक्षम न हो सकेगा। इस स्थिति में, चूँकि शरीर का एक तंत्र दूसरे से जुड़ा होता है, अतः शरीर की यह अक्षमता पूरे शरीर तंत्र में प्रसारित होकर समग्र शरीर की लोचकता अथवा अनुकूलन शक्ति को समाप्त कर देगी।
यहाँ यदि परिवर्तित वातावरण लम्बे समय तक बना रहता है, तो उसे उस वातावरण में जीवित रहने के लिए पुनः अनुकूलन की आवश्यकता पड़ेगी और व्यक्ति पुनः अनुकूलन की एक अन्य प्रक्रिया से गुजरेगा। इस प्रक्रिया के दौरान शरीर तंत्र की फिजियोलॉजी में विभिन्न प्रकार के जटिल परिवर्तन होने आरंभ होते हैं, ताकि वह अपने लचीलेपन को कायम रखते हुए वातावरण के प्रभाव को सहन करने की क्षमता बनाये रख सके। इस प्रकार ऊँची चोटी पर व्यक्ति कुछ दिन पश्चात बिना किसी कठिनाई के सामान्य ढंग से साँस लेने की स्थिति में आ जाता है।
यदि प्राणियों में अनुकूलन की यह क्षमता न हो तो शायद वे अपने को जीवित न रख सके। ऐसे ही अनुकूलन क्षमता बदलते सामाजिक परिवेश में स्वयं को जीवित-जीवन्त बनाये रखने के लिए मनुष्य को भी अभीष्ट होती है। यदि परिवेश के अनुरूप परिवर्तन वह न कर सके, तो उसका जीवित रह पाना संभव न हो सकेगा।
इसी आशय का मन्तव्य प्रकट करते हुए जॉन रसेल अपनी पुस्तक “एडाप्टिव नेचर ऑफ मैन एण्ड एनिमल” में लिखते हैं कि इसे भगवान की महती कृपा ही समझना चाहिए कि उसने सभी प्राणियों में एक ऐसी विशिष्ट क्षमता का समावेश किया है, जिसके अंतर्गत वह किसी भी वातावरण में स्वयं को उसके अनुरूप ढाल कर जिन्दा रह सकता है, चाहे वे अतिशीत युक्त ध्रुवीय प्रदेश हों, अथवा विषुवत् रेखा के उष्ण क्षेत्र। दोनों क्षेत्रों में कुछ दिन के निवास के बाद उनका शरीर-तंत्र स्वयं को वहाँ रहने योग्य बना लेता है। यह तो शरीर-प्रणाली की अपनी विशेषता है, जो अपने ढंग से अपने को परिस्थितियों के अनुरूप विकसित कर लेता है, किन्तु रसेल के मत में मानवी अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए सिर्फ शरीर-प्रणाली के अनुकूलन मात्र से ही काम चलने वाला नहीं है। हाँ, इतना अवश्य है कि जहाँ इतने से ही काम चल जाय, वहाँ तो ठीक है, पर जहाँ आगे और अनुकूलन की आवश्यकता हो, वहाँ दूसरे तंत्रों का भी अनुकूलन जरूरी है अन्यथा वह अस्तित्व संबंधी संकट पैदा कर सकता है।
शरीर अनुकूलन की तरह रसेल विचार-अनुकूलन को भी मानवी अस्तित्व का एक प्रमुख पक्ष मानते हैं और कहते है कि वर्तमान परिस्थितियों में इसी की सबसे अधिक आवश्यकता हैँ यदि मनुष्य समय के अनुरूप अपने विचारों में परिवर्तन नहीं लाता, तो बदलते परिवेश में उसका अस्तित्व समाप्त होने की संभावना उसी प्रकार बढ़ जायेगी, जिस प्रकार शरीर-तंत्र के अनुकूलन के अभाव में किसी जीव का अस्तित्व संकट गहरा जाता है।
एफ एर्ण्डसन अपनी पुस्तक ‘एडाप्टेशन’ में लिखते हैं कि शरीर तंत्र की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि वह किसी भी प्रतिकूलता में जल्द ही अपने को उसके अनुकूल ढाल लेता है, पर मानवी विचार-तंत्र के साथ यह उतना ही कठिन है। मनुष्य अपने विचार को बदलते समय के साथ-साथ बदलना नहीं चाहता जबकि होना यह चाहिए कि उसमें रबर जैसा लचीलापन हो। आज जिस परिस्थिति के इर्द-गिर्द हमारा विचार-तंत्र क्रियाशील है, कल यदि वह परिस्थिति के इर्द-गिर्द हमारा विचार-तंत्र क्रियाशील है, कल यदि वह परिस्थिति न रहे, तो उसमें भी तत्सम बदलाव लाया जा सके। इसी मनुष्य की विशिष्टता और प्रगतिशीलता है, पर प्रायः ऐसा संभव हो नहीं पाता और यही उसकी प्रतिगामिता एवं यहाँ तक कि विनाश की जड़ है।
मूर्धन्य दार्शनिक प्रीतम ए. सारोकिन कहते हैं कि कभी प्रगति के उच्च शिखर पर पहुँची रोमन सभ्यता सिर्फ इस कारण विनष्ट हो गई कि लोग समय के अनुरूप अपने विचारों और क्रियाकलापों में परिवर्तन नहीं ला सके। वे लिखते हैं कि तत्कालीन शासक जूलियस सीजर ने वहाँ के अधिकाँश लोगों को एक ऐसा कार्ड मुहैया कर रखा था, जिसके अंतर्गत सामान्य लोगों को जो नहीं सोचना और करना चाहिए था, उसकी उन्हें पूरी-पूरी छूट थी। बस यही खुली उच्छृंखलता धीरे-धीरे व्रण से नासूर बनता गया और उनके विनाश का कारण बना।