
अपंगों की मसीहा
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नर्सिंग होम के अहाते में प्रवेश करते हुए उसका मन-भूले बिसरे अतीत की भटकी यादों को बटोरने में लगा था। विद्यालय जीवन में कितनी घनिष्ठता थी उन दोनों में। थी भी तो कुछ ऐसी ही वह। हरेक उसका अपना था। हरेक उसे अपना कहने में गर्वित होता था, छात्र से लेकर शिक्षक तक सभी। स्वस्थ-सुपुष्ट शरीर, गोल भरा चेहरा कुछ बोलने को आतुर लगते होंठ, गहरी नीली झील सी आँखें जिनकी गहराई अनन्त में समाती लगती थी। जैसी दीप्ति देह वैसा ही मधुर कंठ। विद्यालय में होने वाली संगीत प्रतियोगिताओं में उसे एक भी ऐसा मौका याद नहीं जब उसकी इस सहेली ने पहला इनाम न पाया हो। बात संगीत की हो या कला की। जादू हाथों का हो या मस्तिष्क का हर कहीं वह अव्वल थी। आज वही प्रतिभा .....।
बड़ा चौड़ा फासला है तब और अब में। इन पाँच सालों ने इसे समेटने की जगह फैलाया ही है। अन्तर की खाई कहीं अधिक गहरी है। उसके पाँव धरती पर थे मन अतीत के आकाश में मंडराता यादों की बदलियों से लुका छिपी खेलने में तन्मय था। अजब है मानव मन अतीत का अद्भुत प्रेमी। इसकी हर दशा में उसे गौरव का आभास होता है। सुखभरी सफलताएँ जहाँ उसमें पुरुषार्थ की अकड़ जमाती हैं वही अवसाद भरी विफलताएँ जीवट भरे संघर्ष का अहसास कराती हैं।
आप को किससे मिलना है? दूधिया परिधान में लिपटी नर्स के इन शब्दों ने उसे अतीत के आकाश से वर्तमान की धरती पर उतार दिया। वर्तमान जो हर पल चाहे अनचाहे रूप से अपने साथ रहता है उससे हम कतराना चाहते हैं। जबकि पल-पल दूर खिसकते जा रहे अतीत को प्रतिक्षण अपना रंग बदलते भविष्य को गले लिपटाने के लिए आतुर हैं। शायद उसने कुछ ऐसा ही सोचते हुए उत्तर दिया मिस ‘सारा फुलर’ से। धीमे से कहे गए इन शब्दों ने नर्स के अस्तित्व को कहीं तीव्र उद्वेलन किया। हल्के से बुदबुदाई वह सारा फुलर। पूछने वाली युवती ने भी इस नाम को दुहराया।
पता नहीं क्या जादू था इस नाम में? हल्के से स्मित के साथ उसने पीछे आने का इशारा किया। कमरे में प्रवेश करती हुई बोली मिस सारा देखिए किसे ले आई हूँ? नर्स के पीछे खड़ी एलीनेर विस्मय विमूढ़ देखती रह गई अपनी सहेली को। ईजी चेयर पर बैठी सारा ने अपने आस-पास ब्रश-रंग बिखेर रखे थे। शायद कोई चित्र तैयार करने में जुटी थी। बड़ी नरमी से उसका हाथ पकड़े एलीनेर ने अपना परिचय दिया। सारा की आँखें चमक उठीं अरे एली तू। कितनी बदल गई है कहाँ थी इतने दिन। एलीनेर मुस्कराई, कई दिनों की पुरजोर कोशिशों के बाद गढ़ा गया भाषण, आश्वासन, साँत्वना और विधि-निषेध के महल की सारी ईंट एक साथ भरभरा कर गिर पड़ी। उस पीले मुख पर खिंची क्षीण हास्य रेखा ने उसे पूरी तरह हरा दिया उसका दर्प चकनाचूर हो बिखर गया।
उसे याद हो आयी विगत सप्ताह उन दोनों की सहेली इवा से मुलाकात। इवा ने बताया था पता नहीं, किस मिट्टी की बनी है वह। पूरे पाँच साल हो गए भुगतते? तू सुन ही चुकी होगी उसकी लम्बी बीमारी की खबर। अपार धैर्य है उसमें, कभी शिकायत नहीं, कभी उदासी नहीं। एलीनेर पूछने लगी करती क्या है दिन भर? इवा ने बताया भई। उसका तो जवाब नहीं। कहती है, समय कम पड़ता है क्या कुछ नहीं करती, क्या नहीं सीखती, दिन भर चित्र ही बनाती रहती है व अब तो आजकल नया शौक चढ़ा है किसी पुस्तक से डिजाइन देखकर रद्दी चीजों के खिलौने बनाती है। खिलौने ऐसे, कि बच्चे देखते ही मचल उठते हैं। पिता ने तरह-तरह के खेल-खेलने का मन बहलाने का सरंजाम जुटा रखा है। वह कहती है मुझे दम मारने की फुरसत नहीं। इस अनोखी बीमार की कहानी ऐलीनेरा को हैरान कर रही थी। हैरानी बढ़ने के साथ आकर्षण बढ़ता जा रहा था। वही हैरानी उसे सारा के पास लायी थी। जो सालों से बीमार है, जिसकी बांई आँख की ज्योति लगभग बुझ चुकी है। एक हाथ लगभग बेकार दशा में है। रीढ़ की हड्डी का असहनीय दर्द। पैरों से तो एक तरह से अपंग ही है, अब शायद ही ठीक हो। जिसकी जीवन ज्योति किसी भी पल बुझ सकती है, उसकी अनन्त कर्मनिष्ठ, अपूर्व उत्साह, अनन्त धैर्य किसे हैरत में न डाल देगा? मुलाकातें होती रहीं हर मुलाकात में एक नया रहस्य उद्घाटित होता।
आज सीढ़ियाँ चढ़ते उसके पाँव हठात् थम गए। सिर नीचा किये सैमक्लीमेंन्स उतर रहे थे। साहित्य जगत में मार्कट्वेन के नाम से विख्यात इस विभूति को देख सकना सहज था। उसे देख कर जबरन मुसकान लाने की कोशिश करते हुए बोले “कब आयी, ऐलीनेर तुम?” “बस दस दिन पहले” अभिवादन करते हुए कहा “सर! आपका स्वास्थ्य तो .....” क्षीण हँसी के साथ बोले “ऐसा होता तो बुरा क्या था। मैं सारा को साहित्य का ज्ञान देने जाता हूँ और स्वयं कितना कुछ ज्ञान प्राप्त करता हूँ। बाईस वर्ष की उस नवयुवती के शरीर को दिन रात गलते देखता हूँ और उसके उत्साह, जिजीविषा देख कर हैरान होता हूँ। वह कहती है उत्साह जीवन का द्वार है। जाओ तुम भी सीखो। भगवान ने उसे हम सब को जीवन का रहस्य सिखाने के लिए भेजा है।”
अन्दर जाने पर उसने सुना सारा मजे से “गोटन मार्गन माइन गोट” दुहराए जा रही है लगता है। फिर कुछ नया बुदबुदाते हुए उसने कदम बढ़ाए। पाँव की आहट भाँपकर पीछे मुड़ते हुए चहक पड़ी अरे ऐली दो दिन कहाँ रही फिर अपने से ही बोली समय नहीं मिला होगा। पर तुमने यह क्या बकझक लगा रखी है। अब क्या सीख रही हो?
“बकझक नहीं, जर्मन सीख रही हूँ। कुछ ही दिनों में शोपेनहॉवर पालडायसन के विचारों का जायका लेने लगूँगी। बस पूछो न।” मुख मुद्रा से ऐसा लग रहा था जैसे सचमुच में जायका ले रही हो। वह आँखें फाड़े कभी सहपाठिनी रह चुकी इस युवती को देखे जा रही थी। भले अनुकूल परिस्थितियाँ रहने के कारण उसने ज्यादा डिग्रियाँ पा ली हों और सारा अपनी बीमारी के कारण यह निरर्थक बोझ न बटोर पाई हो। पर जीवन विद्या के क्षेत्र में सारा कोसों आगे थी ..... कोसों।
“ऐसे घूर-घूर कर क्या देख रही है? बैठ। हँसते हुए सारा कह उठी। ऐसी स्थिति में भी तू जीवन .....” गहरी उसाँस में आधा वाक्य खो गया। आशय को परख कर वह भी गम्भीर हो कहने लगी “देख ऐली! लोग बड़ी भूल करते हैं कि शरीर को जीवन समझ बैठते हैं। यह तो यंत्र है निरी मशीन, यदि चालक कुशल हो तो अनगढ़ यंत्र से भी काम चला लेता है। असली चीज तो उत्साह है उत्साह! समझी, अस्तित्व की अभिव्यक्ति का महाद्वार। वह सुन रही थी अपनी सहेली की इस अनुभूति को। अनुभूति ही तो सच्चा ज्ञान है। अनुभव रहित जानकारियाँ तो बोझ हैं जिन्हें लादने वाला भार वाहक बन कर रह जाता है। आनन्द से भरा पूरा अस्तित्व तो प्रति पल द्वार खटखटा रहा है, खोलो हम प्रकट होना चाहते हैं। दरवाजा हमीं बन्द करके बैठे हैं। सच कहती हूँ ऐली! जहाँ उत्साह है वही यथार्थ कर्मनिष्ठ है, वहीं जीवन है, वहीं सौंदर्य है, वही सब कुछ है फिर शरीर कैसा भी क्यों न हो। ऐलीनेर को अनुभव हो रहा था कि सारा की वाणी अक्षर-अक्षर को गूँथ कर बनाए गए शब्द, शब्द-शब्द को गूँथ पिरो कर बनाये गए वाक्य भर नहीं है वरन् कुछ ऐसा है जो सोचने के लिए विवश कर रहे हैं।
सारा अपने पूरे उत्साह में थी। लगता था इन क्षणों में उसने बीमारी को कोने में रख दिया है। वह कह रही थी साहित्य कला दर्शन, धर्म, विज्ञान, इस संसार में जो कुछ भी दिखाई दे रहा है सब अंदर से