
नया जन्म, नयी यात्रा
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
लोगों के आश्चर्य और कौतूहल का ठिकाना न रहा। परम अभिमानी समझी जाने वाली नगर वधू वैशाली की गलियों में इस तरह अकेली चले, किसके मन का सामर्थ्य थी जो यह सोच ले। सोचे भी कैसे? जिससे मिलने के लिए स्वयं गणपति को भी प्रतिक्षा करनी पड़ जाय, जिसके एक दर्शन के लिए दूसरे राज्याध्यक्षों को महीनों का इंतजार करना पड़े। वही आज इस तरह...। किन्तु सब कुछ आँखों के समक्ष था। अविश्वसनीय अकल्पनीय लगते हुए भी प्रत्यक्ष। वह शाँत भाव से एकाकी चली जा रही थी। उसका प्रत्येक पग आश्चर्य के मस्तक पर पड़ती जा रही सिलवटों में एक की संख्या और बढ़ा देता।
इस शाँति के पीछे कितनी वेदना छुपी थी किसे मालूम? बर्फ सी श्वेत भस्म के भीतर छुपे अंगारे की धधकती जलन को कौन महसूस करें? उसके पहनावे में सिर्फ एक स्वच्छ साड़ी थी, आभूषण के नाम पर केवल एक हाथ में एक सोने की चूड़ी और गले में केवल एक सूत्र का हेमहार। पैर भी उसके नंगे ही थे। ऐसा जान पड़ता था कि शोभा ने वैराग्य धारण किया है, काँति ने व्रतोद्यापन किया है, चन्द्रमा की स्निग्ध ज्योत्सना धरती पर उतर आयी है। घरों की खिड़कियाँ खुल गई। सभी झाँकने लगे। बच्चों का एक दल पीछे-पीछे दौड़ पड़ा। वृद्धों ने कौतुक भरी नजर से एक दूसरे की ओर देखकर कहा बात क्या है? फुसफुसाहटें हुई। ‘सुना है अब पूजा-पाठ करने लगी है, कहते हैं किसी भिक्षु का प्रभाव है।’ अपने को समझदार समझने वालों में कुछ धीरे से बोले ‘देखते रहो, जनम की विलासिनी, करम की मायाविनी गणिका अगर पूजा-पाठ करने लगे, तो मानना होगा कि बबूल में भी कमल के फूल खिलते हैं। पनाले में भी सुगंधि फूटती है सर्पिणी भी पुजारिण बन सकती है।’
धीमे स्वरों में हो रही इस वार्ता के कुछ शब्द उसके कानों में पड़े बिना न रहे शब्द सिर्फ आड़े तिरछे अक्षरों का समूह भर तो नहीं और न ध्वनि उत्पादक कण्ठ सामर्थ्य। यह तो भाव की अभिव्यक्ति है सम्प्रेषण की समर्थ विधा। इसमें समायी तीक्ष्णता, कोमलता, कटुता, मधुरता की अनुभूति हुए बिना नहीं रहती। सुनकर उसे लगा किसी ने उसके अस्तित्व पर ढेरों अंगारे उछाल दिए हों। किसने? विकट प्रश्नचिह्न उसके चिन्तन की राह पर तन कर खड़ा हो गया था। उत्पत्ति से लेकर वर्तमान पल तक अनेक घटना क्रम कुम्हार के चाक की तरह घूम गए। छलक पड़े विषाद को पीने की कोशिश में उसने होठों का एक सिरा दाँतों से दबाया।
मनुष्य और समाज प्रशिक्षु और पाठशाला-प्रशिक्षक के रूप में समझदार कहे-सुने, समझे जाने वाले लोग। बड़ा जटिल है इस त्रिवर्गीय समीकरण का गणित लेकिन उतना ही सहज भी। मनुष्य सुगढ़-अनगढ़ कैसा भी हो, वह अपने विकास की अगली कक्षा में प्रवेश पाने के लिए इस पाठशाला में आता है और यदि पाठशाला ही टूट-फूटकर तहस-नहस हो गई हो, तब दोषी कौन? ये समझदार-लगभग चबाते हुए उसने ये शब्द कहे, विरक्ति पूर्वक होठों को सिकोड़ा।
जन्मतः क्या अन्तर था उसमें और औरों में। वह बालिका थी, अपेक्षाकृत कुछ अधिक ही रूपवान और गुणवान। किसने बनाया उसे हेय, किसने डाला उसे कलुषित मार्ग पर? प्रश्न के उत्तर में अनेकों चेहरे चमके। नगर वधू के चुनाव के समय का सभागार आँखों के सामने घूम गया। पुरोहित, शासक, व्यापारी विचारक वे सभी जो समाज के व्यवस्थापक होने का दम्भ करते हैं। यदि व्यवस्थापक स्वयं अव्यवस्था के पक्षधर हो जाएँ। व्यवस्था के नाम पर उन रीतियों, मान्यताओं के पोषक बन जायँ, जो मानव जाति के पैरों पर कुल्हाड़ी चलाती है। तब भी क्या ये व्यवस्थापक हैं?
मन ही मन वह हँसी पर एक ही पल में सँभल गई। राजोद्यान के बहिर्द्वार पर आकर वह ठिठक गई। विचारों की नाव में बैठी कब कैसे इतनी जल्दी आ पहुँची, पता ही न चला। उसके रुकने से लगा जैसे स्रोतस्विनी के सामने अचानक शिला खण्ड आ गया हो। चकित मृग शावक की भाँति भीत नयनों से चारों ओर देखा। क्या करे, क्या करे? सोच नहीं पा रही थी। भिक्षु संघ के अधिष्ठाता और नगर वधू इन दो किनारों के बीच की दूरी का अनुमान लगाना सहज है। किन्तु तथागत की करुणा का सबल सेतु भी सामने था।
तभी उसकी दृष्टि बाहर निकल रहे एक भिक्षु पर पड़ी। ये आनन्द थे, अपने शास्ता की करुणा के सर्वोत्तम अधिकारी। उसने विनम्रता से कहा ‘मैं महात्मा बुद्ध के दर्शनों के लिए आयी हूँ।’ इतना कहना पर्याप्त था उनके लिये। वे उल्टे पैरों लौट पड़े। बुद्ध को सन्देश दिया। नगर वधू का इस तरह आना सभी के लिए आश्चर्यजनक था। अनेकों दृष्टियों में आश्चर्य को देखकर तथागत मुस्कराए। तब आम्रपाली पहुँच चुकी थी।
‘आओ देवि।’ उन्होंने खड़े होकर स्वागत किया। उनकी सम्मोहक दृष्टि में वात्सल्य था। आँखों से झर रही करुणा से आम्रपाली का समूचा अस्तित्व भीग गया। ‘प्रभु’ उसकी आंखों से अश्रुधारा फूट पड़ी। फफक कर बोली, “मैं अपने पाप जीवन से ऊब गई हूँ। इस नरक से मेरा कभी उद्धार भी होगा।” उसने दीर्घ निश्वास लिया।
“न न पाप जीवन और नरक की बात मत सोचो। तुम्हारे भीतर देवता का निवास है। तुम जिस पाप जीवन की बात कर रही हो वह मनुष्य की बनाई हुई विकृत समाज-व्यवस्था की देन है। चिन्ता न करो देवि, इससे उद्धार हो सकता है। तुम्हारा देवता तुम्हारे भीतर बैठा हुआ अवसर की प्रतीक्षा कर रहा है। कोई बाहरी शक्ति किसी का उद्धार नहीं करती।” वह अन्तर्यामी देवता ही उद्धार कर सकता है।
आम्रपाली आंखें फाड़े उनकी ओर देखती रह गई। उसे इन बातों का अर्थ स्पष्ट नहीं हो रहा था। पर बिना अर्थ समझे भी जैसे मधुर संगीत चित्त को अभिभूत कर लेता है, कुछ इसी तरह की अनुभूति उसे हुई।
तथागत उसे उत्साहित करते हुए बोले देवता न बड़ा होता है न छोटा, न शक्तिशाली होता है न अशक्त। वह उतना ही बड़ा होता है जितना बड़ा उसे उपासक बनाना चाहता है। तुम्हारा देवता भी तुम्हारे मन की विशालता और उज्ज्वलता के अनुपात में विशाल और उज्ज्वल होगा। लोगों के कथन की चिन्ता छोड़ो। अपने अन्तर्यामी को प्रमाण मानो।
उसे यह नया सुनने को मिला। बाल मृगी जिस तरह बरसते मेघ के रिमझिम संगीत को सुनती है। उसी तरह वह सुनती रही चकित, उल्लसित, उत्सुक। आश्चर्य हो रहा था उसे, उसके भीतर भी देवता है। चिर उपेक्षित, चिर पिपासित, चिर अपूजित। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें धरती की ओर जो झुकीं तो मानो चिपक ही गयी। वह दाहिने पैर के नाखून से धरती कुरेदती खड़ी रही। नाना भाव-तरंगों के आघात-प्रत्याघात से वह जड़ प्रतिमा की भाँति निश्चेष्ट हो गई।
कुछ पलों के बाद वह प्रकृतिस्थ हुई। उसे स्वयं नवीन बल का अनुभव हो रहा था। ऐसा लगने लगा लम्बे समय से सोये देवता ने अँगड़ाई ले जीवन व्यवस्था सँभाल ली हो। “प्रभु-मैं” अटकते हुए कहे गए इन शब्दों में छुपे भाव को पहचानते हुए तथागत बोले “देवी! जाग्रत जन ही समाज को नई व्यवस्था देते हैं। जिस कलुषित अस्त व्यस्तता ने तुम और तुम्हारे जैसे अनेकानेक जीवनों को नष्ट किया है उसे बदल डालना नई प्रणाली की रचना करना ही इस धर्म चक्र प्रवर्तन का उद्देश्य है। जाग्रत जीवन की अजस्र शक्तियों का नियोजन यहीं करो।”