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Magazine - Year 1991 - Version 2

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Language: HINDI
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आत्मानुशासन का प्रखर पुरुषार्थ

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प्रत्यक्षतः शरीर से ही शुभ-अशुभ कर्म बन पड़ते दिखाई देते हैं पर वस्तुतः ऐसा है नहीं। शरीर हमारा वफादार नौकर है, जो जन्म से लेकर मरण पर्यंत हमारा साथ देता है। भला-बुरा, सरल कठिन, जैसा भी उचित-अनुचित काम उसे सौंपा जाय, उसे करता रहता है। कभी आनाकानी नहीं करता। उसने किसी को कभी नहीं सताया सच तो यह है कि मनुष्य ही अपने अत्याचारों अनाचारों से उसे संत्रस्त करता रहता है- ऐसे दबाव डालता और ऐसे काम कराता है जो उचित नहीं हैं। इसलिए बात बात में यह कहना उचित नहीं कि शरीर ही पाप की जड़ है। उसी की आसक्ति से हम अधःपतन के गर्त में गिरते है।

आत्मा ईश्वर का अंश है। उसका दायित्व व्यक्ति का ऊँचा उठाना, आगे बढ़ाना है। भवसागर से पार लगाना है। अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ने के लिए और लोक मंगल के दायित्वों को पूरा करते हुए परब्रह्म का सान्निध्य प्राप्त कराना है। इसके लिए वह समय-समय पर चेतावनी भी देता रहता है। शुभ कर्म करने पर सद्विचारों से ओतप्रोत रहने पर उसमें से प्रफुल्लता भरा उत्साह उमगता है। कुमार्ग अपनाने पर दिल धड़कता है, आत्मग्लानि होती है और भीतर से संकेत मिलता है कि अनीति अपनाना अपने साथ ही अत्याचार करना है। आत्म प्रवंचना अपनाकर कोई कभी सुखी नहीं रह सकता। इस स्तर की शिक्षायें अन्तराल में से सदा ही उठती हैं। आत्मा परमात्मा का अंश है, वह अनर्थ सहन नहीं कर सकती। पद दलित होने पर वह व्यक्ति को शाप देती रहती है और किसी कोने पर पड़ी भूखी प्यासी कराहती रहती है।

फिर विचारणीय है कि हमें कुप्रेरणाएँ कौन देता है? कुकर्म कौन कराता है, भटकाता और भरमाता कौन है? लोक और परलोक में, नरक जैसी सड़न में घसीटता कौन फिरता है?

विचार करने पर शरीर और आत्मा की मध्यवर्ती एक चेतना और भी देख पड़ती है। उसका एक चेतना और भी देख पड़ती है। उसका नाम है-मन। प्रत्यक्षतः दृष्टिगोचर भी नहीं होता है और न उसका कार्य समझ में आता है। पर है वह अतिशय बलिष्ठ। साथ ही ऐसा मायावी जिसका ताना बाना सहज समझ में नहीं आता। वह क्या कर रहा है? किसलिए कर रहा है, और जो प्रलोभन का सब्ज बाग दिखाया जा रहा है, उसका दूरगामी प्रतिफल क्या होगा, इसका निर्णय अन्तःकरण को करने नहीं देता। काले कुहासे की तरह उस पर भी छाया रहता है। आश्चर्य यह है कि इसकी हरकतें और हलचलें हम देख समझ भी नहीं पाते और सम्मोहित की तरह वह करते चले जाते हैं, जो न करने योग्य है।

इस मध्यवर्ती, शैतान के दलाल को विकृत मन कहा जाय तो अधिक उपयुक्त होगा। जब वह अपनी सही स्थिति में होता है तो कल्पनाओं के अम्बार बाँध देता है और इतना भाग दौड़ करता है कि आश्चर्य होता है। ताँत्रिक ने भूत सिद्ध किया। उस भूत ने यह शर्त रखी कि मुझे हर समय काम मिलना चाहिए। बेकार मैं नहीं बैठ सकता। बेकारी का अवसर मिला तो मैं इस साधक को तोड़ मरोड़ कर रख दूँगा। साधक कुछ दिन तो काम देता रहा पर जब सभी काम समाप्त हो गये तो भूत ने धमकाना आरंभ कर दिया और जान लेने पर उतारू हो गया। अन्त में एक उपाय किया गया कि आँगन में बाँस गाड़ा गया और कहा गया कि जब भी खाली रहा करे, उस पर चढ़ा-उतरा करे। भूत को काम मिल गया और समस्या का हल निकला आया मन खाली रहने पर इसी प्रकार तंग करता है।

मन पर ही जन्म जन्मान्तरों के कुसंस्कार चढ़े होते हैं। अनेक निकृष्ट योनियों में घूमने के कारण उसी का यह स्वरूप बन गया है कि जो भी अवसर मिलता है, उसी में अपने पूर्व संचित कृमि कीटकों जैसे हेय कुसंस्कारों को चरितार्थ करना आरम्भ कर देता है। नशेबाज को समझाते रहने पर भी वह अपनी करतूत से बाज नहीं आता और कुछ न कुछ नटखटपन आरंभ कर देता है। ऐसा नटखटपन जिसे अपनाने पर न चैन से रहा जा सकता है और न चैन में दूसरों को रखा जा सकता है। शरीर के कण-कण में बीज रूप में दिव्य क्षमतायें भरी पड़ी हैं। वे प्रसुप्त स्थिति में होती हैं इसलिए उन्हें आसानी से कहीं से कहीं ले जाया जा सकता है। वह शक्ति भण्डार प्रतिरोध करने की स्थिति में नहीं होता। उसे जिस भी दिशा में चलाया जाता है, व्यामोहग्रस्त की तरह उसी दिशा में चलने लगता है। नशे की स्थिति में भी मनुष्य भय और लज्जा छोड़कर कुछ भी कुकृत्य करने को तैयार हो जाता है। ऐसी दशा में यों दोष तो अन्त चेतना पर ही आता है। पर यह सारी करतूत होती है मन की। मन लकड़ी में लगी घुन की तरह अपना काम करता रहता है और जीवन रूपी शहतीर को भीतर ही भीतर खोखला करके उसे धराशायी कर देता है। यदि ऐसा न होकर मन का स्थान विवेक को मिला होता तो उसके निर्धारण कुछ और ही होते और उसका परिणाम ऐसा होता जिसके लिए धन्य कहलाने का सुयोग मिला कहा जा सकता है।

मन का निजी स्वभाव नटखट बालकों जैसा है। उसे प्रयत्नपूर्वक समझाना और सुधारना पड़ता है। इस कार्य में जो जितनी सफलता प्राप्त कर लेता है, समझना चाहिए कि उसे मिले हुए भूत से उपयोगी कार्य कराते रहने का अवसर मिल गया।

बहुमूल्य मानवी जीवन को सुरदुर्लभ कहा गया है। इसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करके कोई भी सामान्य स्तर का व्यक्ति ऐसे असाधारण मार्ग अपना सकता है जो अपनों और दूसरों के लिए उत्साहवर्धक आनंददायक सिद्ध हो सके। इस प्रयोजन में एक मात्र बाधक है कुसंस्कारी मन। उसे परिमार्जित किया जा सके तो समझना चाहिए कि जीवनोत्कर्ष की अधिकाँश समस्या का समाधान हो गया। क्योंकि जीवन को गतिशील बनाने, दिशा देने की लगाम उसी ने अपने हाथों सँभाल रखी है जबकि वस्तुतः इसका अधिकारी आत्मा है। आत्मा को राजसिंहासन से धकेल कर इस मायावी गुलाम ने ही सारे अधिकार अपने हाथ में ले रखे हैं।

इसके लिए किया यह जाना चाहिए कि भगवत् समर्पण की साधना में अपने आप को संलग्न किया जाय- भगवान के अगणित गुणानुवादों में से अपने लिए इतना ही पक्ष हृदयंगम करना पर्याप्त है कि वह मनुष्य स्तर के लिए ‘सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय’ है। उसके प्रति आत्म समर्पण की भावनाओं से अन्तराल को भरने का तात्पर्य है ईश्वर की उच्चस्तरीय विशेषताओं को अपने कण-कण में समाविष्ट करना। जिस प्रकार ईंधन अपने आपको अग्नि के निमित्त समर्पित करता है तो वह समिधा सामान्य लकड़ी की होते हुए भी अग्नि रूप हो जाती है। अग्नि की समूची ऊर्जा और आभा अपने में धारण कर लेती है। उसी प्रकार समझा जाना चाहिए कि अपनी आत्मा भी उसी प्रकार जाज्वल्यमान हो गयी और हेय स्तर के कषाय-कल्मष जल गलकर भस्म हो गये। अन्तःकरण के मर्मस्थल में आत्मा और परमात्मा का मिलन हो गया। नाला गंगा में पड़ने से गंगा जल हो जाता है। लोहा पारस को छूकर सोना बन जाता है उसी प्रकार यह प्रगाढ़ अनुभूति होनी चाहिए कि जीवन कण-कण में देवत्व का पर छाया हुआ था वह दानवी उथले मानस पर छाया हुआ था वह तिरोहित हो गया। इस प्रयोजन के लिए प्राणायाम के साथ सोऽहम् की भावना करना उपयुक्त है। उससे आत्म स्वरूप का बोध होता है।

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