
उद्दण्डता पर क्षमा की प्रतिक्रिया
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आम तौर से दुष्ट प्रकृति के उत्तेजनाग्रस्त व्यक्ति अपनी इच्छा के विरुद्ध कहीं कुछ होते देखते हैं तो आपे से बाहर हो जाते हैं और कटुवचन कहने, धमकी देने से लेकर दुर्व्यवहार तक करने लगते हैं। ऐसी गलती प्रायः दुर्बल मानस के व्यक्तियों से ही होती है। पतली धातु का बर्तन थोड़ी सी गर्मी पाने पर गरम हो जाता है, पर यदि वह भारी भरकम होगा तो उसको गरम होने में देर लगेगी।
उत्तेजनाग्रस्त को मानसिक दृष्टि से दुर्बल ही मानना चाहिए, भले ही वह शारीरिक दृष्टि से मोटे-ताजे ही क्यों न हों। गुस्सा अक्सर ऐसे ही लोगों को अधिक आता है। वे आवेश की स्थिति में यह सोच नहीं पाते कि दूसरा व्यक्ति यदि उसका बदला लेने पर उतारू हो गया तो अपने ऊपर क्या बीतेगी? कितना नुकसान उठाना पड़ेगा? जिनके साथ सहज सद्भावना बनी रहती थी, उन्हें कटुवचन कहकर या दुर्व्यवहार करके कितना अप्रसन्न किया जा सकता है और वह अप्रसन्नता तात्कालिक या फिर कभी अवसर मिलने पर क्या हानि पहुँच सकती है। नासमझी ही वस्तुतः कटु व्यवहार का कारण होती है।
दुर्बलों पर दया बरतने का विधान है। बच्चे कुछ गलती करते हैं तो उनको साधारण धमकी या प्रताड़ना देकर बात समाप्त कर दी जाती है, क्योंकि उनकी समझ में आ जाता है कि समर्थ व्यक्ति यदि दण्ड देने या बदला लेने पर उतारू हो जाय तो लेने के देने पड़ेंगे। प्रतिशोध का परिणाम अनुभव करने पर भी ऐसे उद्दण्ड व्यक्ति सहम जाते हैं और कहने में आ जाते हैं। दूसरी बार वैसी ढिठाई भी नहीं करते। पर यदि कोई अहंकारी दुर्बल होते हुए भी अपने को समर्थ समझे और दुर्व्यवहार पर उतारू हो तो स्थिति बदल जाती है। ऐसा व्यक्ति सचमुच ही अहंकार बढ़ने पर पहले की अपेक्षा और भी बड़ी ढीठता बरतने लगता है। उसका बढ़ा हुआ उत्साह दूसरों को तो हानि पहुँचाता ही है। स्वयं उसके लिए भी भारी पड़ता है। क्षमा किए जाने पर भी वह उसका महत्व समझता नहीं व दूसरों की सज्जनता का लाभ उठाते हुए और उद्दण्ड बन बैठता है।
क्षमा का धर्म शास्त्र में बड़ा महत्व है। उसे अपनाने के लिए समय-समय पर उसके पक्ष में उदाहरण दिये जाते रहे हैं और उसे धर्मनिष्ठ का चिन्ह माना गया है। किन्तु उसे अपनाते समय परिस्थितियों का भी ध्यान रखना चाहिए। दुष्टों को दिया गया दान भी पाप के समतुल्य बन जाता है क्योंकि वे उस सहायता का दुरुपयोग कर अधिक बढ़े-चढ़े दुष्कर्म करते हैं। अपने लिए तथा अन्य लोगों के लिए ऐसी सहायता हानि पहुँचाने में समर्थ होती है। इसलिए दान देने का विधान जहाँ भी है वहाँ यह भी कहा गया है कि वह सहायता सत्पात्रों की ही की जाय। कुपात्र के दुरुपयोग करने पर वह सहायता पुण्य की अपेक्षा अधिक पाप का भागी बनाती है।
छोटे बालक या बीमार व्यक्ति कुछ गलती करते हैं तो समर्थ व्यक्ति उस पर ध्यान नहीं देते और क्षमा कर देते हैं क्योंकि वे जानते है कि वे दुर्बलतावश कुछ कर सकते नहीं।