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Magazine - Year 1991 - Version 2

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चिन्तन-मनन का प्रभाव (Kahani)

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संत बिनोवा प्रातः टहलने के लिए तीन मील पैदल जाया करते थे। कंधे पर फावड़ा रखे रहते। ताकि रास्ते में जहाँ भी अस्तव्यस्तता या गंदगी हो उसे साफ करते चलें।

एक किसान ने पूछा आप यह फावड़ा रोज लाद कर क्यों आते हैं। उन्होंने कहा मेरा प्रथम काम सफाई है। इस कार्य के लिए आवश्यक उपकरण तो चाहिए ही। सिपाही भी तो कंधे पर बन्दूक रखकर चलते हैं।

जो दोष अपने से सीधे टकराते हैं उन्हें बिना सन्तुलन खोये, ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि बचकर निकलने का कोई रास्ता निकल सके। विग्रह प्रायः गलतफहमियों के कारण होते हैं। यदि कठिनाई और समाधान निकल आने पर उनकी सज्जनता प्रख्यात होने की बात को ढंग से समझाया जा सके, तो स्थायी न सही तात्कालिक हल तो निकल ही सकता है। उत्तेजना शान्त होने पर बात टल जाती है और मूड बदल जाता है। तब दूसरे को सम्मान देते हुए समाधान की चर्चा कई ओर से चलानी चाहिए। अपने-सामने के व्यवहार में कटुता आ गई हो तो किसी बिचौलिए को मिठास भरी भूमिका निभानी चाहिए। साथ ही यह भी बताना चाहिए कि बात बढ़ने पर दोनों पक्षों को किन-किन संकटों का, उलझनों का सामना करना पड़ सकता है। यदि समझौते पर पहुँचने की एक पक्ष की सच्ची इच्छा हो तो समयानुसार दूसरे पक्ष को भी झुकना पड़ता है। तनाव तब बढ़ता है जब दोनों पक्ष प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर चलें और अपनी हेठी न होने देने की बात पर अड़े रहें। परस्पर वार्तालाप न करना और गुत्थी को हल करने के लिए चर्चा न चलाना भी ऐसा रुख है, जो टकराव को रोकता नहीं, वरन् बढ़ाता है।

अन्यान्यों के सुधार का यह तरीका अच्छा है कि उन्हें एकान्त में अपनी सद्भावना का स्मरण दिलाते हुए इस प्रकार समझाया जाय कि दोषों के बने रहने पर होने वाली हानियों और छोड़ देने पर उत्पन्न होने वाली सुविधाओं को तर्क-उदाहरण समेत समझाया जाय। मनुष्य में हठवादिता और अहमन्यता का अंश तो बढ़ा-चढ़ा अवश्य होता है, पर सज्जनता, मधुरता और दूरदर्शिता में वह विशेषता है कि वह दुराग्रह को भी नरम कर सकती है।

लोगों के दोष उन पर हावी होते हैं, जो स्वयं दोषी रहते हैं, क्रोधी से क्रोधी टकराता है। एक पक्ष विनम्र हो तो दूसरे की आवेशग्रस्तता भी कारगर नहीं होती। एक हाथ से ताली नहीं बजती, इसलिए अपने आपे को उद्दंडता और कायरता दोनों से बचाना चाहिए। कायरता भी ऐसा पक्ष है जिसे देखकर अनाचारियों का हौसला चढ़ दौड़ने के लिए उछलता है। सहायक या साधनों की कमी रहने पर भी कोई मनस्वी व्यक्ति एकाकी भी तन कर खड़ा हो सकता है और आक्रान्ताओं की आधी हिम्मत पस्त कर सकता है। विग्रह से बचने के लिए सरल समाधान का उपाय खोजना बुद्धिमानी है, पर उस सीमा तक नरम भी न पड़ा जाय जिसे कमजोरी समझा जाय। शारीरिक कमजोरी की तरह मानसिक दुर्बलता भी उतनी ही कष्ट कर है। कमजोर शरीर पर बीमारियों का अनायास ही आक्रमण होता है। इसी प्रकार जो मन से दुर्बल हैं उन पर अनाचारियों को आक्रमण करने के लिए मन चलता है। हम दुष्ट तो न बनें, पर दुष्टता सहन भी न करें। सज्जनता, नम्रता और मधुरता में इतनी सामर्थ्य है कि अनाचार को निरस्त भी करती है और निरुत्साहित भी।

सुधार कार्य में यदि वस्तुतः अपनी रुचि हो तो उसे अपने आपे से आरंभ करना अधिक सरल है। दूसरे लोग कहना न मानें, यह हो सकता है, किन्तु अपना मन तो समझाया ही जा सकता है। अपनी आदतों पर तो अंकुश लगाया ही जा सकता है। अपने ऊपर संयम बरतने के लिए दबाव डाला जा सकता है। यदि आत्म निरीक्षण, आत्म सुधार, आत्म निर्माण और आत्म विकास का चतुर्विधि प्रयास निरन्तर जारी रहे तो उस चिन्तन-मनन का प्रभाव अपने व्यक्तित्व को परिष्कृत करने की दृष्टि में बहुत अंशों में सफल हो सकता है।

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