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Magazine - Year 1991 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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सुधार का शुभारम्भ अपने आप से

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राह के काँटे कंकड़ देख कर चलना और उनसे बचते हुए पैर रखना ही उचित है। इसे सतर्कता और समझदारी कहा जायगा, किन्तु यह नहीं मान बैठना चाहिए कि हर राह सीमेन्ट से बनी साफ, सुथरी है। हर मार्ग पर रोड़े हैं, उन्हें पूरी तरह हटाया नहीं जा सकता। साथ ही यह भी आवश्यक है कि पैरों को ठोकरों से, चुभन से बचाया जाय, अन्यथा पैर घायल हो जायेंगे और नियत स्थान तक पहुँचने से पहले ही मरहम पट्टी की व्यवस्था करनी पड़ेगी।

इस संसार में कुछ अपवाद जैसे देव मानवों को छोड़कर ऐसे लोग कम हैं जिनके गुण, कर्म, स्वभाव में कोई-न-कोई कुछ न कुछ त्रुटि न हो। उसे देखते ही चौंक पड़ना और उनके समूचे व्यक्तित्व को घटिया मान बैठना उचित नहीं। तब क्या उन दोषों को सहन किया जाय? उनकी उपेक्षा की जाय? अपने को उनका समर्थक, सहायक बना लिया जाय? नहीं, इस सीमा तक दरगुजर करने की जरूरत नहीं है। जहाँ तक अपना वश चले दुर्गुणों को घटाया और मिटाया जाना चाहिए। दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना चाहिए, पर इसके लिए आतुर होने की, अतिवादी बनने की जरूरत नहीं है। हमारी दृष्टि मध्यवर्ती होनी चाहिए।

दुष्प्रवृत्तियों से बचना ही आवश्यक है और अन्यान्यों के दुर्गुण अपने ऊपर आक्रमण न करने पायें, इससे सतर्क भी रहना चाहिए, किन्तु इतने पर भी लोगों में अवाँछनीयताएँ बनी ही रहें तो उन्हें सुधारने के अतिरिक्त सहन करने की तालमेल बिठाने की भी चेष्टा करनी चाहिए।

सब मनुष्य पूर्णतया निर्दोष बन जायेंगे ओर देव मानवों जैसा शुद्ध, पवित्र जीवन जियेंगे, इसकी आशा करना व्यर्थ है। संचित कुसंस्कार समय-समय पर उभरते रहते हैं और कुप्रचलनों का प्रभाव पड़ता है। इन दबावों का जो सामना नहीं कर पाते, वे पतन, पराभव की ओर लुढ़क पड़ते है। कुछ समय अभ्यास में आते रहने के उपरान्त अवाँछनीयताएँ जड़ जमा लेती हैं और स्वभाव के साथ इतनी घुली जाती हैं कि अभ्यस्त को यह पता तक नहीं चलता कि उसके क्रिया-कलाप में, चिन्तन, चरित्र में कितने दोष दुर्गुण समाये हैं। वह अपने आपको निर्दोष ही समझता रहता है और एक बारगी उस ओर ध्यान आकर्षित करने या भर्त्सना के कटु शब्दों में समीक्षा कर देने पर तिलमिला जाता है और सुधार प्रयास को निन्दा या शत्रुता समझने लगता है। ऐसी स्थिति बन जाने पर बात बनती नहीं, बिगड़ती है। सुधार की जो गुंजाइश थी वह भी हाथ से चली जाती है। दोष प्रतिष्ठ का प्रश्न बन जाता है और दोषी चुनौती देने लगता है कि हम अपनी जगह पर सही हैं, जिसमें दम-खम हो बदलने का प्रयास पूरा करके दिखाये। दुराग्रह तक स्थिति के जा पहुँचने पर जो सुधार संभावना थी, वह भी हाथ से चली जाती है। इस प्रकार समीक्षा का, सुधार चेष्टा का प्रयत्न ही निष्फल हो जाता है।

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