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Magazine - Year 1991 - Version 2

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चमत्कारों की जननी संतुलित श्रम-निष्ठ

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उच्चस्तरीय दायित्वों को निभाने के लिए जिस प्रतिभा की आवश्यकता है वह श्रमशीलों में होती है। श्रम और प्रतिभा इन दोनों को अनुक्रमानुपाती कहा जाय तो उचित ही होगा। एक का जितना विकास होता, दूसरे का भी उतना ही अभिवर्धन होता जाता है। यही कारण है कि पश्चिमी देशों में बड़े-बड़े उद्योगपति अपने बच्चों को दायित्व का अनुभव कराने के लिए कारखानों में मजदूरों की तरह श्रम कराते हैं। यह उचित है। जो इस विधा को नहीं कर सकता। इस सत्य के बाद भी व्यावहारिक जीवन में देखा यह जाता है श्रमशील भी सुयोग्य अथवा उतने योग्य नहीं होते जितना अपेक्षित है।

कारण पर विचार करने पर स्पष्ट होता है कि क्रिया व चिन्तन दोनों के क्षमतावान होने के लिए जिस सामंजस्य की अपेक्षा है, उसकी उपेक्षा की जाती है। शारीरिक श्रम करने वाले मानसिक पक्ष को भूला बैठते हैं। इसके फलस्वरूप उन्हें गँवार मूर्ख जैसे शब्दों से सम्बोधित किया जाता है। मानसिक श्रम करने वाले गँवार भले न कहे जायँ पर शारीरिक पक्ष की ओर ध्यान न दिये जाने के कारण उन्हें दुर्बल, रोगी, जैसी स्थिति से गुजरना पड़ता है। दोनों ही स्थितियों में मानवी प्रतिभा का समुचित उपयोग नहीं हो पाता है। यों शरीर और मन बड़े करीबी हैं। एक के प्रभावित होने पर दूसरा प्रभावित होता हैं। शरीर में कोई रोग हो जाय तो मन बेचैन रहता है। यदि मन में क्रोध आवेश जैसे विक्षोभ उत्पन्न हो जायें तो रक्त संचालन में तेजी हाथों पैरों की हरकत जैसी विचित्र बातें होने लगती हैं। इन दोनों में पारस्परिक सामंजस्य अनिवार्य है। इसके बिना इन दोनों की शक्तियाँ ठीक ढंग से विकसित नहीं हो पातीं।

यह सामंजस्य स्थापित हो जाय तो व्यक्तित्व में प्रौढ़ता आती है। रूस में तो किसी समय समूचे राज परिवार के सभी सदस्यों के लिए शारीरिक श्रम करना अनिवार्य था। इस परम्परा को शुरू करने वाले सम्राट पीटर तब राजकुमार थे। उन्हें युवराज घोषित किया जा चुका था। परन्तु उन्होंने युवावस्था में ही निश्चय किया कि वे जीवन की खुली पाठशाला में पढ़ सामंजस्यपूर्ण जीवन जियेंगे। उन्होंने शाही-शान शौकत के बाड़े से निकल कर हालैण्ड की जहाज निर्माता कम्पनी में एप्रेंटिस के रूप में काम किया। इंग्लैण्ड की पेपर मिल और आटा मिल में काम किया। एक बार लोहे का बाट बनाने वाली फैक्ट्री में काम कर रहे थे। फैक्ट्री का मालिक उनके युवराज होने से परिचित था। महीने के अन्तिम दिन 10 बाँट की एवज में निर्धारित मजदूरी से अधिक देने लगा। उन्होंने वापस लौटते हुए कहा कि मैं 3 कोयक हिसाब से ही पैसा लूँगा। मालिक को मानना पड़ा। बाद में इससे फटे जूतों के स्थान पर नए जूते खरीदे। आज भी ये जूते और तौलने के बाँट रूस के संग्रहालय में श्रमनिष्ठा के प्रतीक के रूप में सुरक्षित हैं। ऐसे उदाहरण पुरातन भारत के उन सभी नरेशों पर लागू होते हैं, जो जीवन कला शिक्षण हेतु एक साधारण बालक की तरह अपने उत्तराधिकारियों को गुरुकुल भेजा करते थे।

मानसिक विकसित अवस्था तथा सुविधा-साधनों के बीच रहते हुए शारीरिक श्रम जीवन को जीतना समर्थ व सक्षम बनाता है उतना ही इसका विपरीत भी सत्य है। अर्थात् शारीरिक श्रम करते हुए मानसिक श्रम का योग इसी तरह क्षमतावान बना देता है। जानवान मेकर उन दिनों एक किताब की दुकान पर सवा डालकर प्रति सप्ताह की दर-पर मजदूरी करते थे। किन्तु इसके साथ मानसिक योग्यता अर्जित करने का क्रम बराबर बनाए रखा। व्यापारिक तौर तरीके, रीति-नीति सीखने के साथ अध्ययन भी करते। विकसित प्रतिभा की बदौलत बाद में एक दीवालिया फर्म को ले लिया। उस डूबती फर्म को उबार कर जानवान मेकर मजदूर से एक उद्योगपति के रूप में विकास कर सके।

इसी तरह का एक और उदाहरण द्रष्टव्य है। ‘युथ्स कम्पेनियन’ नामक पत्रिका ने अमेरिका के समृद्धतम व्यक्तियों की गणना में आने वाले साइरस डब्लू फील्ड का प्रसंग प्रकाशित किया था। भाई से उपेक्षित होकर फील्ड स्टूवर्ट की एक फर्म में साधारण मजदूरी के लिए भर्ती हुए। सुबह 6 बजे काम पर जाते और सूर्यास्त होने तक अपने काम में जुटे रहते। वेतन निर्धारित हुआ करीब 4 डालर प्रतिमास। दूसरा कोई होता तो इस शारीरिक मेहनत से थक कर शाम को घर जाते ही चैन से सोता। पर उन्होंने प्रतिभाशाली बनने की कसम उठा रखी थी। वह अपनी आत्म कथा में लिखते हैं कि इस कठोर श्रम के बाद भी वह वाणिज्य लाइब्रेरी जाया करते। वहाँ व्यवसाय सम्बन्धी पत्रिकाओं तथा पुस्तकों का अध्ययन करते। जहाँ भी कुछ सीखने को मिल जाता वहाँ पहुँचने का प्रयत्न करते। इसी सामंजस्यपूर्ण परिश्रम के कारण साइरस अमेरिका के सुविख्यात उद्योगपति बन सके।

सामान्य जीवनक्रम में इससे बिल्कुल विरोधी स्थिति देखने में आती है। जो मानसिक कार्यों को करते हैं, वह चाहे दफ्तर के क्लर्क हों या अधिकारी अथवा शिक्षक शारीरिक श्रम से पीछा छुड़ाने की कोशिश में रहते हैं। कोल्हू के बैल की तरह ढर्रे-ढर्रे में चलती हुई जिन्दगी चालीस-पचास की वय तक पहुँचते-पहुँचते तकरीबन इतनी ही बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं।

यही दशा शारीरिक मेहनत करने वालों की है। इनकी शिकायत यह रहती है हाड़-तोड़ परिश्रम के बाद भी चैन नहीं नसीब होता। कारणों की तह में जाने पर बात साफ हो जाती है। रिक्शे ताँगे वाले भी लगभग तीस-चालीस रुपया नित्य कमा लेते हैं। चार अंकों की मासिक आय उन्हें मध्यमवर्ग में ला सकती है। फिर भी वे गरीब के गरीब क्यों बने रहते हैं? इसका कारण है सही नियोजन क्षमता का अभाव दूसरे अर्थों में मानसिक लकवा। उनका जीवन मूल्य, सही जिन्दगी जीने की रीति-नीति सीखने की तरफ ध्यान ही नहीं है, कितने को विकसित करने के प्रयास के बदले उसे भूलने की कोशिश की जाती है। परिणाम भी तदनुरूप होते हैं। पशुवत जिन्दगी बीतती रहती है।

प्रतिभावान बनें, इसके लिए अनिवार्य है कि चिन्तन और क्रिया दोनों ही पक्षों में सामंजस्य उपजे। अँग्रेजी विचारक पैक्टनहूड के शब्दों में इस तरह की सन्तुलित श्रमनिष्ठ जिस गति से बढ़ती है जीवन में एक आलौकिक निखार आने लगता है। इस एक बार समझ लिया जाय फिर तो वह आदत बन जाती है। दूसरे लोग भले ही उसे देखकर घबराएँ पर वह हमारी ग्रीवा में पुष्पहार की तरह सुशोभित हो जाती है।

यों व्यावहारिक जीवन में सदैव एक पक्ष प्रधान होगा। पर श्रम से आजीविका कमाने वाले भी यदि चिन्तन के विकास में जुटें, कर्त्तव्यों एवं जीवन मूल्यों को जानने के लिए अध्ययन करें, अपने ही कार्य की बारीकी जानने का प्रयास करें तो उपजी सूझ-बूझ तथा व्यवस्थित जीवनक्रम उन्हें सामान्य से असामान्य बना देता है। इस तरह मानसिक श्रम प्रधान जीवन वाले व्यक्ति शारीरिक मेहनत करने लगें भले ही उसका स्वरूप बागवानी, व्यायाम, खेलकूद क्यों न हो? इस तरह की उपजी आदत के फल स्वरूप रोग-कष्ट काफूर हो जायेंगे? अभी तक जिन कार्यों को नहीं सम्पन्न किया जा सका तुर्त-फुर्त पूरे होने लगेंगे।

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