
जड़ी-बूटी विज्ञान का नये सिरे से अनुसंधान
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अन्न, शाक और फल आहार के प्रमुख अंग हैं। आहार से ही रक्त-माँस बनता है। उसी के सहारे पुरुषार्थ करना और जीवित रहना बन पड़ता है। अस्तु आहार की अनिवार्यता और महत्ता सभी समझते हैं।
इसी शृंखला में एक कड़ी जड़ी-बूटियों की और जुड़ती है। परमेश्वर की अनेकानेक महती अनुकम्पाओं में से एक यह भी है कि रोगों के निवारण और सामर्थ्य के अभिवर्धन हेतु बहुमूल्य जड़ी-बूटियाँ भी जहाँ-तहाँ उगती हैं। उनके आधार पर मनुष्य अपनी आरोग्य सम्बन्धी समस्याओं का समाधान सहज ही कर सकता है। खनिज सम्पदा का जीवन क्रम में कितना महत्व है, यह सभी जानते हैं। धातुएँ, रसायनें, कोयला, तेल आदि अनेक बहुमूल्य वस्तुएँ भू गर्भ से मिलती हैं। वे न हों तो कितनी कठिनाई का सामना करना पड़े। इसे सभी जानते है। ठीक यही बात वनौषधियों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है।
सामान्य वनस्पतियाँ घास-चारे के रूप में पशुओं का और अन्न-शाक के रूप में मनुष्यों का जीवन चलाती हैं। इसलिए उन्हें वाग्भट्ट कहा गया है। इससे एक कदम आगे बढ़ कर जड़ी-बूटियों की बात सामने आती है। खदानों में साधारणतया पत्थर कोयले ही निकलते हैं, पर कही-कहीं उन्हीं में बहुमूल्य हीरा-पन्ना जैसे रत्न भी निकल आते हैं। यही बात वनस्पतियों के सुविस्तृत क्षेत्र में जड़ी-बूटियों के संबंध में भी कही जा सकती है। वे अनेकानेक शारीरिक मानसिक रोगों के निवारण में पूरी तरह समर्थ है। इतना ही नहीं उनके सहारे शारीरिक बलिष्ठता, मानसिक प्रखरता भी उपलब्ध की जा सकती है। दीर्घायुष्य का लाभ मिल सकता है, उनके सहारे आत्मिक प्रगति का सुयोग भी बनता है।
महर्षि चरक, सुश्रुत, वाग्भट्ट जैसे दिव्यदर्शी ऋषियों ने अथक परिश्रम करके समस्त धरातल को खोजा, और यह ढूँढ़ निकाला था कि किन वनौषधियों में क्या विशेष गुण हैं और उनसे मनुष्य का किस प्रकार क्या हित साधन हो सकता है। अपने अनुसंधान, निष्कर्ष एवं अनुभव का सार उन्होंने आयुर्वेद ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक लिखा है। यह ऐसा विज्ञान है कि यदि उसे समझाया और अपनाया जा सके तो स्वस्थता को अक्षुण्ण बनाये रखने का मार्ग अति सरल हो सकता है। इनके सहारे बलिष्ठ रहकर दीर्घायुष्य का लाभ उठाया जा सकता है।
इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि इन दिनों एलोपैथी द्वारा प्रतिपादित मारक औषधियों का प्रचलन चल पड़ा है। रोगों का कारण विषाणुओं को माना और उन्हें मारने के लिए एण्टीबायोटिक्स के द्वारा शरसंधान किया जाता है। इसका तात्कालिक लाभ तो यह होता है कि विषाणुओं के मरने से रोग का प्रकोप थम जाता है। इसके बदले भारी हानि यह होती है कि आरोग्य रक्षा के रक्त कणों की सेना का भी उतना ही संहार होता है और शत्रु के साथ मित्र भी मरते हैं। आरोग्य रक्षा जिन स्वास्थ्य रक्षक जीवाणुओं पर निर्भर है यदि वे मारक औषधियों द्वारा धराशायी बना दिये जायँ तो फिर एक नया संकट यह खड़ा होता है कि रोग प्रतिरोधी क्षमता ही समाप्त हो जाती है। किसी भी बीमारी को आक्रमण करने की खुली छूट मिल जाती है। यहाँ तक कि सर्दी-गर्मी तक सहन नहीं होती और आये दिन लू लगने, जुकाम होने जैसी शिकायतें रहने लगती हैं। जो पक्ष एलोपैथी के औचित्य की परिधि में आते हैं, जहाँ कहीं सर्जरी अनिवार्य है, ऐसे अपवादों को छोड़कर उसके स्थान पर वनौषधि विज्ञान को प्रश्रय दिया जाय तो इसे दूरदर्शी विवेकशीलता कहा जाएगा।
आहार में से चटोरापन हटाने और अभक्ष्य से मुँह मोड़ने की आवश्यकता समझी जानी चाहिए। शाकाहार का महत्व समझना चाहिए, साथ ही स्वास्थ्य समस्याओं के समाधान के लिए जड़ी-बूटियों का आश्रय लेना चाहिए। यही वह अवलम्बन है जिसे पूर्वजों ने अपनाया था। वे निरोग, समर्थ और दीर्घजीवी रहते थे। इसका कारण उनका संयमी जीवन था। उसी दूरदर्शिता की एक कड़ी यह भी है कि स्वास्थ्य संबंधी व्यवधानों का निराकरण वनौषधियों के सहारे किया जाय। इस आधार पर रक्षक जीवकोषों को बिना किसी प्रकार की हानि पहुँचाये रोगों को निरस्त किया जा सकता है। जड़ी-बूटियों की मुख्य विशेषता यह है कि वे जीवनी शक्ति बढ़ाती है। उस बढ़ी हुई समर्थता के सामने विषाणु टिकते नहीं और सहज ही खदेड़ दिये जाते हैं। इस आधार पर बढ़ाई गई जीवनशक्ति भविष्य के लिये भी आरोग्य रक्षा की किलेबंदी सुदृढ़ करती है। फलतः चिकित्सा के साथ-साथ समर्थता अभिवर्धन भी बन पड़ता है। जड़ी-बूटियाँ जीवनीशक्ति बढ़ाती है। यदि उन्हें शास्त्रीय अनुसंधानों, प्रतिपादनों के आधार पर अपनाया जाय तो गौदुग्ध की तरह वे हित साधन ही करती हैं। अनिष्ट की संभावना उनमें है नहीं, सो कोई जानबूझ कर विष निगले तो बात दूसरी है।
जड़ी-बूटियों में से कुछ ऐसी महत्वपूर्ण होती हैं जिन्हें संजीवनी कहा जा सके। लक्ष्मण जी को मेघनाद के शक्तिबाण लगे जिसे देखकर रामचन्द्र जी विलाप करने लगे थे। सुषेण वैद्य को बुलाया गया। उन्होंने हिमालय से एक दिव्य बूटी मँगाने को कहा। हनुमान लाये और उपचार से लक्ष्मण जी पुनः स्वस्थ हो गये। ऐसे ही अन्य प्रसंग भी हैं। वयोवृद्ध च्यवन ऋषि जर्जर, शरीर थे। आंखें भी चली गई। उपचार के लिए अश्विनी कुमार वैद्य आये और उन्होंने जड़ी-बूटी उपचार किया। फलतः उनकी नेत्र ज्योति ही नहीं जवानी भी लौट आई। उस योग का नुस्खा तो कहीं उपलब्ध नहीं, पर किंवदंती के आधार पर उसी घटना का बखान करते हुए च्यवनप्राश अभी भी बाजारों में बिकता है।
कल्प चिकित्सा के नाम से आयुर्वेद में एक विशिष्ट उपचार पद्धति का वर्णन है। राजा ययाति जैसे वयोवृद्धों को उसी आधार पर तरुण बनाया गया था। ऋषियों के आश्चर्यजनक लम्बे जीवन का वर्णन मिलता है। इनमें उनकी योगसाधना तो प्रधान थी ही दिव्य जड़ी-बूटियों का उपयोग भी सम्मिलित था।
सर्प और नेवले की लड़ाई के संबंध में कहा जाता है कि सर्प दंश से आहत होने पर नेवला एक विशेष जड़ी को खाने दौड़ता है और उससे नई शक्ति पाकर साँप पर नया आक्रमण करता है। नेवले की जीत का कारण सर्प की तुलना में उसकी समर्थता नहीं, वरन् औषधिभिज्ञता ही चमत्कार दिखाती है।
इन दिनों जड़ी-बूटी का महत्व, उपयोग ही नहीं ज्ञान तक आँख से ओझल होता चला जा रहा है। एक जैसी शक्ल वाली वनस्पतियों को किसी के नाम पर किसी को उखाड़ा, बेचा और खरीदा जाता है। पंसारियों की दुकानों पर वे वर्षों पुरानी रखी रहती हैं और पहचान सही न होने से एक के स्थान पर दूसरी थमा दी जाती है। वनस्पतियाँ एक वर्ष में गुणहीन हो जाती हैं। होना यह चाहिए कि अवधि समाप्त होने पर गुणहीन हुई वनौषधियों को नष्ट कर दिया जाए। अंग्रेजी दवाइयों में यह ईमानदारी अभी भी पाई जाती है कि अवधि समाप्त होने पर इन्हें फेंक दिया जाता है। पर जड़ी-बूटियाँ तो बीस-तीस वर्ष तक भी यथावत बिकती रहती है। गुणहीन होने पर उन्हें फेंक देने की अभी तक कहीं भी व्यवस्था नहीं हो सकी। यही कारण है कि उनका लाभ वैसा नहीं मिलता जैसा कि मिलना चाहिए था।
आवश्यकता यह समझी गई कि जड़ी-बूटी विज्ञान को पुनर्जीवित किया जाय। आयुर्वेद पाँचवा वेद है। इसे अथर्ववेद का व्याख्या-विवेचन कहा जाता है। वेदों के उद्धार-प्रयास का सर्वप्रथम यहीं से आरंभ होना चाहिए। आयुर्वेद में मात्र जड़ी-बूटियों का