
वसुधैव कुटुम्बकम् की उदात्त भावना विकसित हो
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“आत्मवत् सर्व भूतानि यः पश्यति सः पण्डिताः!” के एक सूत्र में मानव कल्याण की समग्र भावना सन्निहित है। यह सारा विश्व एक सूत्र में बँध सकता है यदि सभी लोग इसके अनुसार संसार को एक कुटुँब के रूप में देखें और प्रत्येक मनुष्य से वैसे ही प्रेम करें जैसे अपने परिवार के सदस्यों के साथ करते हैं। व्यवहार को सहृदयता हृदय की विशाल भावनाओं से समुन्नत होती है। जितने उच्च विचार और उद्धार भावनायें होंगी, उतना ही औरों को अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता भी होगी। चिरस्थायी ममत्व अपनत्व मनुष्य की आँतरिक उत्कृष्टता से ही प्राप्त होता है। वाचालता और कपटपूर्ण व्यवहार से किसी को थोड़ी देर तक अपनी ओर लुभाया जा सकता है, पर स्थिरता का सूत्र तो प्रेम ही है। हमारे अंतःकरण में दूसरों के लिए जितनी अधिक मैत्री की भावना होगी, उतना ही अपना व्यक्तित्व विकसित होगा, उतनी ही आत्म शक्तियाँ विस्तारित होगी।
अपने हित की साधना का भाव तो पशु-पक्षियों तक में पाया जाता है। परन्तु अन्य जीवधारियों की तुलना में मनुष्य जीवन में दिव्यता की, दिव्य विकास की सारी संभावनाएँ विद्यमान हैं। अतः इसमें कोई बुद्धिमानी नहीं हो सकती कि मनुष्य सम्पूर्ण जीवन केवल अपनी ही स्वार्थपूर्ण प्रबंधनाओं में बिता दे। इससे अन्त तक मानवी दिव्य शक्तियाँ प्रसुप्त बनी रहती हैं। प्रेम और आत्मीयता की भावनाओं का विकास नहीं हो पाता। स्वार्थपरता एवं संकीर्णता के कारण मनुष्य का जीवन कितना दुखमय, कितना कठोर हो सकता है, वह सर्व विदित है। वस्तुतः सज्जन तथा सराहनीय वह है जो केवल स्वहित तक सीमित नहीं है। जो उदारतापूर्वक सब के हित की बात सोचता है, वही व्यक्ति श्रेय का अधिकारी है।
“दि राइटस आफ मैन” नामक कृति में सुप्रसिद्ध मनीषी टामस पेन ने कहा है कि ‘यह समूचा विश्व मेरा देश है और भलाई करना मेरा धर्म।’ विश्व प्रेम की इस भावना में जो रमणीयता, सौंदर्य दर्शन तथा मोहकता सन्निहित है, यथार्थ में यही मनुष्य की सच्ची धार्मिक सम्पत्ति हो सकती है। इसी से पुण्य पथ प्रशस्त होता है, इसी से प्रसुप्त क्षमताएँ जाग्रत होती हैं। घृणा और क्रोध बैर और बदले की भावना से आज हमारा जीवन स्तर गिरता चला जाता है। इससे सामूहिक तौर पर व्यक्ति और समाज दोनों का पतन होता है। समाज में सात्विकता का प्रकाश जिन सद्गुणों से फैलता है, उनकी ओर संकेत करते हुए भगवान कृष्ण ने कहा है-
‘अद्वेष्ट सर्वभूतानाँ, मैत्रः करुणा एव च।
निर्ममी निरहंकार सम दुख सुख क्षमी॥’
अर्थात् जो सम्पूर्ण प्राणियों को अद्वैत भावना से देखता है, सबके साथ मैत्री , करुणा, माया-मोह से रहित और नम्रतापूर्ण व्यवहार करता है। जो सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति क्षमा भाव रखता है, उनके साथ सुख और दुःखों में समान रहता है, वही पूर्ण पुरुष है। अर्थात् महानता का लाभ मनुष्य इन्हीं सद्गुणों के आधार पर पाता है।
स्वामी रामतीर्थ ने विशाल संसार को अपना घर बताते हुए कहा कि सर्वत्र प्रेम का साम्राज्य है। इसके बिना मानव जीवन में सरसता नहीं आती। हम जितने अधिक अंशों में समाज के प्रति आत्म विस्तार करते हैं, उसी अनुपात में प्रेम की अनंतः ज्योति हमारे जीवन में मधुरता भरती जाती है। भावनाओं का यह विस्तार मनुष्य को अपने आप से करना होता है। व्यक्तिगत चरित्र निर्माण से यह प्रक्रिया प्रारम्भ होती है, धीरे-धीरे परिवार, गाँव, समाज, राष्ट्र और विश्व के साथ उसका सामंजस्य बढ़ता जाता है। इसी क्रम में व्यक्ति को निज का ज्ञान, बौद्धिक विकास और ईश्वर अनुभूति की सिद्धि प्राप्त होती है। यह आत्मयोग ही ब्रह्मज्ञान का सबसे सीधा और सरल रास्ता है।
‘आत्म सर्वभूतेषु’ की उदात्त भावना ही आत्मा के पूर्ण विस्तार की प्रतीक है। ऐसे व्यक्तियों के सहृदयता, उदारता, कष्ट सहिष्णुता आदि सद्गुण पराकाष्ठा तक जा पहुँचते हैं। उनके लिये अपने पराये का भेद मिट जाता है। वह परमात्मा के प्रकाश में ऐसे असीमत्व का अनुभव करते हैं जिससे उनके सम्पूर्ण दुख अभाव आदि नष्ट हो जाते हैं और प्राणिमात्र की सेवा में सर्वस्व बलिदान करने की महानता जाग्रत होकर धरती को कृतार्थ कर देती है। उदारचेताओं की भाँति हमें भी ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की यह भावना विकसित कर पूर्णता के लक्ष्य को पाना चाहिए।