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Magazine - Year 1993 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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गुबरीले कीड़े नहीं, बाग की तितली बनें

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First 19 21 Last
लोग अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार संबद्ध लोगों के बारे में भले या बुरे होने की बात सोचते रहते हैं। जिनके गुण दीख पड़ते हैं उन्हें सज्जन मान लिया जाता है और जिनके दोष दीख पड़े उन्हें दुर्जन मानने की मान्यता बन जाती है। यों हर किसी में न्यूनाधिक मात्रा में दोष दुर्गुण रहते ही है पर अपना निज का जो दृष्टिकोण बन जाता है वह दूसरों का एक पक्ष ही सामने आने देता है विशेषतया दोषों के संबंध में। गुणों की तो उपेक्षा भी होती रहती है पर दोष जब दीखते हैं तो उनके साथ बढ़ा चढ़ा कर मानने की बात मन में बैठ जाती है। यही कारण है कि आम आदमी में दोषों की भरमार ही अपने इर्द−गिर्द दीख पड़ती है। अस्तु द्वेष,घृणा और उपेक्षा से लेकर उनका विरोध करते रहने जैसा मानस बन जाता है। गुणों की प्रशंसा करने में जो सकुचाते हैं इसमें अपना अहं भी बाधक होता है क्योंकि वह अपने अतिरिक्त और किसी को सर्वगुण संपन्न मानता ही नहीं। फिर औरों के साथ सद्गुणियों- हितैषियों जैसा व्यवहार कैसे बन पड़े? इसी मनोवैज्ञानिक धुरी पर लोगों की मान्यता परिभ्रमण करती देखी जाती है। बच्चों के अतिरिक्त और किसी के साथ घनिष्ठता प्रायः जुड़ ही नहीं पाती। अतएव काला चश्मा पहनने वाले को जिस प्रकार सब कुछ काला ही काला दीखता है उसी प्रकार व्यक्तियों घटनाओं और परिस्थितियों में मात्र अवाँछनीयता ही खोजते पर ऐसा कुछ मानस बन जाता है कि संसार में मात्र दोष ही भरे पड़े है, मनुष्यों में मात्र स्वार्थ परायणता ही भरी पड़ी है।

इस मान्यता के अनुसार निराशा-बढ़ती है जो कभी विद्रोह के रूप में, कभी वैराग्य के रूप में उभरती है। जिनके साथ निर्वाह चलता है उसमें उपेक्षा या कटुता भरती और बढ़ती चली जाती है। इसकी प्रतिक्रिया असद् व्यवहार के रूप में ही उभरती है। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। अपनी ओर से असहयोग क्या दुर्भाव बरतने पर दूसरे भी अपना रुख प्रायः वैसा ही बना लेते हैं। फलस्वरूप मनोमालिन्य बढ़ता जाता है। सहयोग के साथ-साथ सम्मान भी उपलब्ध होना बन्द जैसा होता जाता है।

यह स्थिति उन लोगों के बीच अधिक तेजी से पनपती है जो साथ-साथ रहते हैं। जिन्हें दूर-दूर रहना पड़ता है , यदा-कदा ही मिलते हैं उनकी बात तो भूलते जाने का स्तर भी अपना लेते हैं पर जो साथ-साथ रहते हैं उनमें यदि दोष दृष्टि उभरे तो फिर कलह के बीज जमते चले जाते हैं और वे बढ़कर तिल से ताड़ की स्थिति तक जा पहुँचते हैं। यही कारण है सहवासियों के बीच प्रायः वैसे मधुर संबंध नहीं पाये जाते जैसे कि पाये जाने चाहिए। पीठ पीछे तो बुराई करने का दौर चलता ही रहता है। कभी-कभी तो आमने सामने भी तुनकने या कडुआ बोल बैठने जैसी अप्रिय घटनायें भी घटने लगती है। अवसर आने पर जिसका दाँव लगता है वह डंक मारने से भी नहीं चूकता।

यह बुरा कुचक्र है जिसके कारण अनेकों को अनेक प्रकार के वास सहने पड़ते हैं। अनेकों समस्याओं में उलझना पड़ता है और अनेकों विग्रह आये दिन सामने खड़े रहते हैं। यह समूची प्रतिक्रिया मूलतः अपनी ही दोष दृष्टि से उत्पन्न होती है। यदि उसे आरंभ में ही समेट कर रखा गया होता, उगते ही दबा दिया गया होता तो चिंतन अवसर ह न आता और उन अनेकानेक झंझटों से बचा न जा सकता था समय का बड़ा भाग इन उलझनों में उलझे रहने में ही नष्ट हो जाता है। चिंतन जो इन अनावश्यक कार्यों में खप जाता है यदि बचाया जा सका होता तो उससे सहज ही शाँति पाने और प्रसन्न रहने की स्थिति बनी रह सकती थी। घात प्रतिघातों वाला समय यदि किन्हीं उपयोगी सृजनात्मक कार्यों में लग सका होता तो उनके सत्परिणाम सहज ही सामने आते रह सकते थे।

होना यह चाहिए कि अपने दृष्टिकोण को सदाशयता ढूँढ़ निकालने का अभ्यस्त बनाया जाय। छिद्रान्वेषण की अपेक्षा गुण ग्राहकता की सद्प्रवृत्ति का विकसित किया जाय। यह सर्वथा संभव भी है और सरल भी। संसार में कोई प्राणी या व्यक्ति ऐसा नहीं जिसमें कुछ न कुछ उपयोगी विशेषता न हो। उसे खोज निकालने की यदि अपनी आदत विकसित , हो सके तो फिर हर कहीं से कुछ न कुछ ऐसा देखा, खोजा और पाया जा सकता है जो उत्साह बढ़ा सके। प्रशंसा के योग्य दीख पड़े। यदि उसी पक्ष को अपने स्वभाव का अंग बनाया जा सके तो गुण दीख पड़ने पर बड़े प्रिय पात्र बनाने एवं प्रशंसा करने का मन चलेगा। शिष्ट व्यवहार और सद्भाव का प्रदर्शन भर ऐसा है जो दूसरों को अपने प्रति सौजन्य प्रदर्शित करने के लिए बाधित करता है। प्रशंसा के बदले प्रशंसा मिलती है और प्रतिष्ठा के बदले प्रतिष्ठा। अपना सद्भाव दूसरे के सद्भाव को उभारता है और क्रमशः स्नेह सौजन्य का पारस्परिक व्यवहार बनता चला जाता है। यह अच्छी स्थिति है। जिसके प्रति जितने अधिक लोगों का सौजन्य है वह उतना ही प्रसन्न रहता है। मनोबल में वृद्धि होती दीखती है। विरोधियों की संख्या घटे और सहयोगियों की बढ़े तो अपने क्रियाकलापों में सुगमता ही रहेगी, सफलता ही मिलेगी। प्रगति के पथ प्रशस्त होते जाने की संभावना ही बढ़ेगी।

यहाँ गुण-दोष विवेचन की, नीर−क्षीर, विवेक बुद्धि को झुठलाया नहीं जा रहा है पर यह कार्य हर कोई नहीं कर सकता। इसके लिए राजहंस जैसी निष्पक्षता और उज्ज्वल विवेक बुद्धि चाहिए। सामान्ताओं में वह विशेषता नहीं होती है। वे प्रायः एकाँगी दृष्टिकोण अपनाये रहने के अभ्यस्त होते हैं। अपने स्वभाव के अनुरूप एक ही पक्ष ढूँढ़ते हैं। बगीचे में सुगंधित और सुरक्षित

फूल खिले होते हैं। भ्रमर उन्हीं पर मँडराता है। तितलियाँ, मधुमक्खियाँ भी उन्हीं के सौंदर्य पर मुग्ध होती और अपने-अपने स्तर का रसास्वादन करती है। इसके ठीक विपरीत गुबरीले कहलाने वाले भी उसी बाग में रहते हैं। उन्हें गोबर की गंध सुहाती है और कचरे के ढेर में रहते और वहीं से आहार उपलब्ध करने की आदत होती है। वे इधर-उधर घूम कर कहीं न कहीं खाद के लिए जमा किया हुआ सड़ा गोबर ढूँढ़ निकालते हैं और उसे पाकर फूले नहीं समाते। उसी में डेरा डालते हैं। कभी अभिव्यक्ति प्रकट करने का अवसर मिले तो फिर समूचे बगीचे में मात्र गोबर की ही प्रधानता होने का वर्णन अपने साथियों से करते हैं, जो उसकी बात को सही भी मानते हैं और अनुमोदन भी करते हैं।

तब क्या इस संसार में सब कुछ अच्छा ही अच्छा है? क्या सभी की सराहना की जाय? और सभी से मैत्री भाव बढ़ाया जाय? यहाँ ऐसा कुछ नहीं कहा जा रहा है। यह संसार गुण−दोषों से भरा पड़ा है। इसकी संरचना सत् और असत् के सम्मिश्रण से हुई है। शैतान और भगवान दोनों ही अपना-अपना काम करते हैं। अंधकार और प्रकाश दोनों का ही अपना-अपना अस्तित्व है। इस तथ्य को समझते हुए सर्वसाधारण के लिए व्यावहारिक यही है कि जो अवाँछनीय है उसकी चपेट में अपने को न आने देने के लिए बचते रहने की सतर्कता अपनाई जाय। हो सके तो दूसरा को भी सावधान किया जाय। कम से कम अनौचित्य का समर्थन या सहयोग तो नहीं ही किया जाय।

सबको सुधारने की यदि अपनी शक्ति न हो तो कम से कम इतना तो करें ही कि अपने आप को सुधार लें, अपने दृष्टिकोण को सज्जनोचित स्तर पर परिष्कृत कर लें। संसार में अच्छाइयाँ इतनी कम नहीं है कि उन्हें ढूँढ़ना, अपनाना और सराहना संभव ही न हो सके। अपना लाभ सब प्रकार इसी में है कि गुण-ग्राहकात की नीति सहयोग बढ़ाकर अपनी मित्र मँडली विनिर्मित करने का क्षेत्र विस्तृत किया जाय। साथ ही खीज और निराशा से उत्पन्न होने वाले उन मनोविज्ञान जन्य व्यथाओं से बचा जाय जा शरीर और मस्तिष्क को खोखला बनाकर अकालमृत्यु के मुंह में धकेलती है।

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