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Magazine - Year 1993 - Version 2

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सेवाधर्म ही, हर दृष्टि से नफे का उपक्रम

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बाजार में सभी तरह की वस्तुएँ सुसज्जित रूप से विक्रयार्थ सजी रखी रहती हैं। पर उनमें से कौन क्या खरीदे यह ग्राहक की अपनी अभिरुचि पर निर्भर रहता है। हमें संकीर्ण स्वार्थ-परता के दुर्गन्ध भरे दलदल में फँसना है या गंगाजी की पतित-पावनी धारा में प्रवेश करके अपने को स्वच्छ, शीतल करना है यह अपना निज का चयन एवं निर्णय है। गंगा के समीप ही कहीं सड़ा दलदल भी होता है। किस में प्रवेश करके किस स्थिति में पहुंचा जाय यह अपनी निज की अभिरुचि पर निर्भर है।

जन सामान्य में अधिकाँश लोग आदर्शों की दृष्टि से बहुत अधिक गये गुजरे होते हैं। उन पर पशुता के कुसंस्कार मानव कलेवर प्राप्त कर लेने के उपराँत भी पूरी तरह छाये रहते हैं। तात्कालिक लाभ ही उसका उणस्य एवं इष्ट होता है। तुरन्त किस प्रकार कितना रसास्वादन करते बन पड़े इसी की ललक हर किसी पर छाई रहती है। लोक मान्यता सब प्रकार से प्रवाह धारा बन जाती है। हलके वजन की वस्तुएँ उसी प्रवाह के साथ-साथ चलती दौड़ती हैं। यह विवेक उन बहने वालों में से किसी में भी नहीं होता कि प्रवाह किधर जा रहा है और उसका अंत कहाँ किस रूप में होगा। इस चिंतन के अभाव में आमतौर से अंधी दौड़ चलती रहती है। भेड़ चाल का उदाहरण घटित होते हर जगह देखा जाता है। सभी नदियों का स्वच्छंद जल अंततः खारे समुद्र में गिर कर वैसा ही अपेय बन जाता है। भले ही आरंभ में वह कैसा ही स्वच्छ, गुणकारी, शीतल और सराहनीय क्यों न रहा हो। जनसाधारण में हलचलें तो पाई जाती हैं पर वे किस निमित्त हो रही हैं अंत में कहाँ जा पहुँचेगी इसका पूर्ण निर्धारण प्रायः किसी से जी नहीं बन पाता। जनमानस की प्रवृत्ति प्रायः वानर जैसे अनुकरण की होती है। बहुत लोग जैसा सोचते वैसा करते देखे जाते हैं उसी की नकल बनाना अन्यान्यों से बन पड़ता है। दूरदर्शी विवेक का उदय हुआ तो बहुत कम देखा जाता है। दूरवर्ती लाभ हानि का निष्कर्ष निकालना तो किन्हीं बिरलों से ही बन पड़ता है। सामान्यतया समाज में अंधी भेड़ों का उदाहरण बनने और एक के बाद दूसरा खड्ड में गिरते चलने का निमिष बनता है।

उपर्युक्त का चयन मानवी प्रज्ञा की उच्चस्तरीय विशेषता इसके लिए लाक प्रचलन की उपेक्षा करनी पड़ती है। तत्काल का लाभ छोड़ना पड़ता है। यदि इसे छोड़ते न बन पड़े तो चाशनी में पर फँसाकर मक्खी की तरह तड़प-तड़प कर बेमौत मरना ही पड़ता है। मछलियों और चिड़ियों की जाल में फँसकर इसी प्रकार की दुर्गति होती है। बीज की तरह गलकर और विशाल वृक्ष की तरह फलने का सौभाग्य तो किन्हीं-किन्हीं को ही उपलब्ध होता है। शेष दाने तो सीलन भरी कोठरी में पड़े रहकर कृमिकीटक के पेट में चले जाते हैं।

मनुष्य जन्म मिलना स्रष्टा का विशिष्ट किन्तु प्रारंभिक उपहार है। इसमें आने का वरदान जिन्हें मिलता है वे दूरदर्शी विवेकशीलता से सुसम्पन्न होते हैं। राजहंस की तरह उन्हें दूध पानी को अलग करने की कला आती है। कीड़े की उपेक्षा करने और गहरी डुबकी लगाकर मोती चुनने का कौशल भी उन्हीं में देखा जाता है। जो विवेक की कसौटी पर खरे उतरते हैं, जिनमें श्रद्धा-प्रज्ञा और निष्ठा की उत्कृष्टता विद्यमान रहती है, वे निर्वाह की न्यूनतम आवश्यकता पूरी होते रहने के संबंध में निश्चित रहते हैं। ऐसे लाग जीवन तत्व के सम्बन्ध में गंभीरता से विचार करते और उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग का उपाय सोचते हैं। यदि कोई इस स्तर का चयन कर सके तो उसे “सेवा धर्म” अपनाने की ही ललक जगेगी। उत्कंठा उठेगी। परोपकार में स्वार्थ सिद्धि का समावेश जी अनायास ही हो जाना है। गाय दूसरों के लिए दूध, बछड़े, गोबर आदि देती रहती है उसके बदले में उसे चारा दाना, पानी, आच्छादन आदि की सुविधा मिलती है और सम्मानपूर्वक गौ माता कहा जाता है। बैलों का श्रम जी असंख्य मानवों का पेट अपने कृषि पराक्रम द्वारा भरता है। उसे निर्वाह के लिए कष्ट नहीं उठाना पड़ता। आदर्शवादी हंसों की पग-पग पर सराहना होती है। उनके दर्शन शुभ माने जाते हैं। भगवती सरस्वती के वाहन रूप में उन्हें अंकित किया जाता है। बादलों का दर्शन होते ही सभी प्राणियों में प्रसन्नता भरी उमंग उमड़ती है। उषाकाल का उदय होते ही पक्षी चहचहाने लगते हैं और अन्यान्य प्राणियों की गतिशीलता अनायास ही सक्रिय हो जाती है।

समझा जाता है कि सेवा-साधना में प्रत्यक्ष ही घटा है। अपना समय, धन लगाने पर ही दूसरों की सहायता बन पड़ती है। इस आधार पर दूसरे लाभ उठा सकते हैं पर अपना तो खर्च ही खर्च हुआ ऐसी दशा में जिन्हें अपने स्वार्थों को प्रमुखता देनी है उन्हें सेवा कार्यों से बचना ही चाहिए। अपने घाटे से होने वाली हानि का बचाव ही करना चाहिए।

यह चिंतन एकाँगी और अदूरदर्शी है। जिसकी हम सेवा सहायता करते हैं। उसका मन सहज ही जीत लेते हैं। उसकी सहानुभूति, सद्भावना अर्जित करते हैं। जो प्रकारान्तर से प्रशंसा, श्रद्धा, सहकारिता एवं उपकार के रूप में लौटकर वापस आती है। यह कम मूल्य का प्रतिदान नहीं है। कोई व्यक्ति मात्र अपने ही बलबूते प्रसन्न रहने और सफल बनने के सारे सरंजाम नहीं जुटा लेता। उसमें दूसरों का जितना योगदान होता है उसी अनुपात से उपलब्धियाँ भी बढ़ी-चढ़ी होती हैं। एकाँकी संकीर्ण व्यक्ति तो निस्तब्ध ही बैठा रह सकता है। नीरस ही बना रह सकता है। एकाँगी प्रसन्न रहना तो किसी ब्रह्मज्ञानी के लिए ही संभव होता है। आमतौर से अपने सुख बँटाये जाते हैं और दूसरों के दुख बाँटकर अपने कंधे पर लिए जाते हैं तभी बदले में आत्म संतोष और जन सम्मान की विभूतियाँ हस्तगत होती हैं। जब अन्य सुनने वालों को ये विवरण विदित होते हैं तो उन्हें प्रबल प्रसन्नता होती है और कर्म के प्रति सहज सद्भाव उमड़ता है। इस प्रकार जिसके साथ नेकी की गयी है उसी पर ही अनेकानेक अन्यान्यों द्वारा भी यश की सम्मान की वर्षा होने लगती है। जिसका प्रत्यक्ष कुछ उपकार नहीं किया गया है उसके द्वारा भी कृतज्ञता और प्रशंसा बरसाई जाती है। यह लाभ तत्काल न सही प्रकारान्तर से कितने ही मार्गों द्वारा अपने लिए लाभदायक सिद्ध होते हैं। सेवाभावी उदारचेता-परमार्थ परायण माना जाता है। इसके साथ ही उसे दयालु, उपकारी, निःस्वार्थ चरित्रवान भी दयालु मान लिया जाता है। व्यक्तित्व की यह प्रमाणिकता मनुष्य को बढ़ी-चढ़ी पूँजी है।

प्रामाणिकता के सहारे ही अनेकों महत्वपूर्ण आदान-प्रदान और सद्भाव सहकार मिलते-रहते हैं। प्रगति चाहे किसी भी प्रकार की क्यों न हो उसके लिए दूसरे उपयोगी व्यक्तियों का सहयोग समर्थन आवश्यक है। यदि वह न मिले तो अकेला व्यक्ति कितना ही सुयोग्य और पुरुषार्थी क्यों न हो व्यापक क्षेत्र में लोकप्रिय न बन पड़ेगा। मात्र अपने ही कर्तृत्व का सीमित प्रति प्राप्त कर किसी प्रकार दिन गुजारता रहेगा। जबकि अनुदान का प्रतिदान असंख्य गुना होकर लौटता है। नाले अपना जल गंगा को सौंपते हैं। फलतः वे नाले न रहकर गंगा के समान ही सम्मान पाते हैं। समर्पण के द्वारा अंततः उनका जल जी गंगा जल ही बन जाता है। स्वार्थ को परमार्थ स्तर तक विकसित कर लेना आत्मिक प्रगति की चरमसीमा है।

सेवा धर्म ठीक इसी प्रकार का है, जिसे अपनाने पर दूसरों को लाभ होना स्वाभाविक है। पर यह भी सुनिश्चित रूप से समझ लेना चाहिए कि उस दिशा में कदम बढ़ाने वाला स्वयं जी कम लाभान्वित हुए बिना नहीं रहता। जिनने इस आधार पर लाभ उठाया वे तो उस परिस्थिति के बदले जाने पर वैसा लाभ पाने में देर कर देते हैं। पर सेवाभावी की उदारता उसके अन्तःकरण में स्थिर स्थान बनाकर रह जाती है और वैसे सुयोग के अवसर अनायास ही आये दिन उपलब्ध होते रहते हैं। फिर यह सत्प्रवृत्ति स्वभाव का एक अंग बन जाती है। पुण्य किसी को भी अधिक पवित्र प्रखर, प्रतिभावान, यशस्वी और मनस्वी बना सकता है। इस निरंतर चलते रहने वाले लाभ को सामान्य नहीं असामान्य स्तर का ही मानना चाहिए।

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