
उपासना करें तो इस तरह
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ईश्वर को किसी ने देखा नहीं है और न वह सर्वव्यापी निराकार होने के कारण देखने की वस्तु है। इसकी प्रतीक प्रतिमा तो इसलिए बनायी जाती है कि मानवी कलेवर में उत्कृष्टता की पक्षधर भाव-श्रद्धा को उस माध्यम के साथ जोड़कर परब्रह्म को विशिष्टताओं की परिकल्पना करना सर्वसाधारण के लिए सहज संभव हो सके। राष्ट्रध्वज में देश भक्ति की भाव-श्रद्धा का समावेश करके उसे गर्व-गौरव के साथ दुहराया और समुचित सम्मान प्रदान किया जाता है। इसी प्रकार सर्वव्यापी, न्यायनिष्ठ सत्ता का प्रतिमा में आरोपण करके भाव-श्रद्धा को उस स्तर की बनाया, सुविकसित किया जाता है कि वह सत्प्रवृत्तियों के समुच्चय परब्रह्म के साथ जुड़ सकने योग्य बन सके।
भगवान का दर्शन करने के लिए लालायित अर्जुन, काकभुसुण्डि, यशोदा, कौशल्या आदि के आग्रह का जब किसी प्रकार समाधान होते न दीख पड़ा और साकार दर्शन का आग्रह बना ही रहा तो उन्हें तत्वज्ञान की प्रकाश प्रेरणा ने इस विशाल विश्व को ही विराट् स्वरूप दर्शन का वर्णन-विवेचन गीताकार ने अलंकारिक ढंग से समझते हुए यह प्रयत्न किया है कि विश्वव्यापी उत्कृष्टता ही उपासना योग्य ईश्वरीय सत्ता है। यों यह समस्त विश्व-ब्रह्मांड में तो एक नियामक सूत्र संचालक के रूप में जानी मानी जा सकती है। उसे अनुशासन, संतुलन, सुनियोजन आदि के रूप में ही वैज्ञानिक दृष्टि से समझा जा सकता है। उसकी अनुभूति भाव श्रद्धा के रूप में ही हो सकती है। तन्मय और तद्रूप होकर ही उसे पाया जा सकता है। अग्नि के साथ एकात्मता प्राप्त करने के लिए ईंधन को आत्म समर्पण करना पड़ता है और अपना स्वतंत्र अस्तित्व मिटाकर तद्रूप होने का साहस जुटाना पड़ता है। ईश्वर और जीव के मिलन की यह प्रक्रिया है। नाले को नदी में अपना विलय करना पड़ता है। पानी को दूध में घुलना और वैसा ही स्वाद स्वरूप धारण करना पड़ता है। पति और पत्नी इस समर्पण की मानसिकता को अपना कर ही द्वैत से अद्वैत की स्थिति में पहुँचते हैं। मनुष्य भी जब देवत्व से संपन्न होता है तो देवता बन जाता है और जब उसमें परमात्मा जैसी व्यापकता ओत-प्रोत हो जाती है तो आत्मा की स्थिति परमात्मा जैसी हो जाती है। उसमें बहुत कुछ उलटफेर करने की अलौकिकता भी समाविष्ट हो जाती है। ऋषियों और सिद्ध पुरुषों को इसी दृष्टि से देखा और उन्हें प्रायः वैसा ही श्रेय सम्मान दिया जाता है।
विभिन्न मतमतान्तरों के अनुरूप विभिन्न प्रकार की पूजा पद्धतियाँ क्षेत्र या सम्प्रदाय विशेष में प्रचलित पायी जाती हैं, पर उन सबके पीछे लक्ष्य और रहस्य एक ही काम करता है कि अपने आप को परिष्कृत एवं सुव्यवस्थित बनाया जाय। यही है ईश्वर की एक मात्र पूजा, उपासना एवं अभ्यर्थना। विश्व व्यवस्था में निरन्तर संलग्न परमेश्वर को इतनी फुरसत नहीं कि वह इतने भक्तजनों की मनुहार सुने और चित्र-विचित्र उपहारों को ग्रहण करे। यह सब तो मात्र अभ्यर्थना के माध्यम से अपने आपको उत्कृष्टता के मार्ग पर चल पड़ने के लिए स्वसंकेतों के रूप में रचा और किया जाता है। ईश्वर पर न किसी की प्रशंसा का कोई असर पड़ता है और न निंदा का। पुजारी नित्य प्रशंसा के पुल बाँधते और निन्दक हजारों गालियाँ सुनाते हैं। इनमें से किसी की भी बकझक का उस पर कोई असर नहीं पड़ता। गिड़गिड़ाने, नाक रगड़ने पर भी चुनाव आयोग किसी को अफसर नियुक्त नहीं करता। छात्रवृत्ति पाने के लिए अच्छे नम्बर लाने और प्रतिस्पर्धा जीतने से कम में किसी प्रकार भी काम नहीं चलाता। ईश्वर की भी यही सुनिश्चित रीति-नीति है उसकी प्रसन्नता इसी एक केन्द्र-बिन्दु पर केन्द्रित है कि किसने उसके विश्व उद्यान को अधिकाधिक सुन्दर-समुन्नत बनाने के लिए कितने अनुदान प्रस्तुत किये। अपने को कितना प्रामाणिक एवं परिष्कृत बनाया। उपासनात्मक कर्मकाण्ड इसी एक सुनिश्चित व्यवस्था को जानने-मानने के लिए किये और अपनाये जाते हैं। यदि कर्मकाण्ड भर लकीर पीटने की तरह पूरे किये जायँ और परमात्मा के आदेश-अनुशासन की अवज्ञा की जाती रहे, तो समझना चाहिए कि यह बालक्रीड़ा मात्र खेल-खिलवाड़ है। उतने भर से क्या
किसी का कुछ भला हो सकने वाला है? नहीं?
देवपूजा के कर्मकांडों को प्रतीकोपासना कहते हैं - जिसका तात्पर्य है कि संकेतों के आधार पर क्रिया-कलापों को निर्धारित करना। देवता का प्रतीक एक पूर्ण मनुष्य की परिकल्पना है जिससे प्रेरणा पाकर उपासक को भी हर स्थिति में सर्वांग सुन्दर एवं नवयुवकों जैसी मनःस्थिति में बने रहना चाहिए। देवियाँ मातृसत्ता की प्रतीक हैं। उनको तरुणी एवं सौंदर्यमयी होते हुए भी कुदृष्टि से नहीं देखा जाता, वरन् पवित्रता की मान्यता विकसित करते हुए उन्हें श्रद्धा-पूर्वक नमन-वंदन ही किया जाता है। नारी मात्र के प्रति साधक की मान्यतायें इस स्तर की विनिर्मित, विकसित होनी चाहिए।
पूजा-अर्चना में जल, अक्षत, पुष्प, चंदन, धूप-दीप नैवेद्य आदि को संजोकर रखा जाता है। इसका तात्पर्य उन माध्यम संकेतों को ध्यान में रखते