
आप हमें गढ़ते रहें (kavita)
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ध्यान तक था नहीं, जब हमें आपका।
प्यार तब से, हमें आप करते रहे॥
मृदु-हथेली, लगाये रहे प्यार की।
पर सुकोमल-हथोड़ी से गढ़ते रहे॥1॥
किन्तु हम अनगढ़े, एक पाषाण थे।
आप की छटपटाहट से, अनजान थे॥
आपके स्नेह का, शिल्प चलता रहा।
बहुत धीमे, मगर कुछ बदलता रहा॥
काम की, क्रोध की थे गठाने बहुत।
किन्तु बेचैन रह, आप ढलते रहे॥
मृदु-हथेली, लगाये रहे प्यार की।
पर सुकोमल-हथोड़ी से गढ़ते रहे॥2॥
आज भी शिल्प, पूरा कहाँ हो सका।
साफ, बेकार कूड़ा, कहाँ हो सका॥
किन्तु फिर भी, अधूरा न छोड़ा हमें।
हम बहुत ढीठ थे, किन्तु मोड़ा हमें॥
हो नहीं भावना-शून्य, निष्प्राण हम।
आप संवेदना, प्राण भरते रहे॥
मृदु-हथेली, लगाये रहे प्यार की।
पर सुकोमल-हथोड़ी से गढ़ते रहे॥
हैं अधूरे, मगर एक तो लाभ है।
दिव्य-संस्पर्श का, मिल रहा लाभ है॥
माँ लगाये हथेली, मृदुल प्यार की
है हथोड़ी, पिता के परिष्कार की॥
भान होगा हमें, जन्म-जन्मान्तरों।
दिव्य माता-पिता, साथ चलते रहे॥
मृदु-हथेली, लगाये रहे प्यार की।
पर सुकोमल-हथोड़ी से गढ़ते रहे॥
शिल्प करना पिता! यूँ हमारा सदा।
माँ ! हमें प्यार का दो, सहारा सदा॥
दुर्गुणों, दुर्व्यसन से, बचाना हमें।
सद्गुणों से सतत् ही, सजाना हमें॥
फिर असंभव नहीं, देव बनना प्रभो।
आप दोनों, वरद्हस्त धरते रहे।
मृदु-हथेली, लगाये रहे प्यार की।
पर सुकोमल-हथोड़ी से गढ़ते रहे॥
- मंगलविजय