
सूर्य की रश्मियों से संभव है चिकित्सा
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वृक्ष-वनस्पतियों एवं जीवधारियों का जीवन धूप तथा प्रकाश-रश्मियों के रंग पर निर्भर करता है। सूर्य की प्रकाश-ऊर्जा तरंगों का अवशोषण करके पेड़-पौधे बढ़ते और परिपुष्ट बनते हैं। इसके अभाव में उन्हें निष्क्रिय होते और पीला पड़कर दम तोड़ते सभी ने देखा है। यही तथ्य मनुष्य के शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य पर भी लागू होता है। प्रकाश-रश्मियाँ हमारे लिए उतनी ही आवश्यक हैं जितनी कि पेड़-पौधों को। ये जीवन धारण के लिए क्लोरोफिल नामक हरे तत्व से मिलकर भोज्य पदार्थों के उत्पादन में सहायक होती है। वैज्ञानिक खोजों से अब यह बात स्पष्ट रूप से प्रमाणित हो गयी है कि शरीर के रासायनिक तत्वों पर सही संतुलन बनाये रखने में सूर्य की रसवर्णी किरणें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। खनिज तत्वों के घट बढ़ से उत्पन्न स्वास्थ्य असंतुलन एवं रुग्णता का प्रकाश रश्मियाँ दूर कर देती हैं। सही तरीके से यदि रंग विशेष की किरणों का आश्रय लिया जा सके तो उनसे न केवल शरीर को अपेक्षित मात्रा में रासायनिक तत्वों की पूर्ति होती रहती है वरन् वह विकार रहित और निरोग भी बना रहता है। यदि किसी कारणवश कोई रोग उत्पन्न ही हो गया हो तो सूर्य किरणों से उसका निवारण हो जाता है। कार्य पुष्प एवं प्राण संचार का आधार सूर्य ही है।
सूर्य की विभिन्न रंग-रश्मियों से विभिन्न प्रकार के रोगों को दूर करने की विज्ञान सम्मत उपचार प्रक्रिया व्रतपो थेरेपी, कलर हीलिंग, कीटोनथेरेपी आदि नामों से जानी जाती है। प्राचीन काल से ही र्सू की सप्तवर्णी किरों रोग निवारण एवं प्राण-संवर्धन के रूप में प्रयुक्त होती रही हैं। ऋग्वेद 1/50/52 में उल्लेख है कि सूर्य-रश्मियों द्वारा हृदय रोग एवं पाण्डु रोग को दूर किया जा सकता है। इसी तरह अथर्व वेद की ऋचा 9/8 के अनुसार प्रातःकाल की आदित्य किरणें अनेक प्रकार की व्याधियों को नष्ट कर देती हैं। अनुसंधानकर्ता वानवेत्ताओं ने जी अब इस तथ्य की पुष्टि कर दी है। ‘द स्पेक्ट्रोक्रोमोमेट्री एनसाइक्लोपीडिया’ नामक प्रसिद्ध विश्वकोष में मूर्धन्य चिकित्सा विज्ञानी डॉ. पी. गेटियाली ने सूर्य चिकित्सा के सिद्धान्तों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है कि किस प्रकार से कैसे और क्यों विभिन्न रंगों की किरणें विभिन्न प्रकार के रोगों को प्रभावित करतीं और शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करती हैं।
पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान हिपोक्रैट्स सूर्य किरणों द्वारा रोगियों की चिकित्सा करने के लिए विख्यात थे। तेरहवीं शताब्दी में इस संदर्ज में डेनमार्क के ख्याति-लब्ध चिकित्सक डॉ. नाई फिसेन ने गहन अनुसंधान किया था और पाया था कि प्रकाश रश्मियों से क्षय जैसे घातक रोगों पर निंयत्रण पाया जा सकता है। इस विधि से उनसे कितने ही क्षय रोगियों का उपचार कर उन्हें आरोग्य लाभ प्रदान करने में सफलता भी पायी थी इसके पश्चात् डॉ. रोलियर, डॉ. आर. डी. स्टकर, डॉ0 ए. ओ. ईव्स, डॉ. बेबिट जैसे प्रख्यात् चिकित्सा विशेषज्ञों ने सूर्य चिकित्सा के क्षेत्र में गंभीरता पूर्वक अध्ययन अनुसंधान किये और इस आधार पर जटिल एवं असाध्य रोगों की सफलतापूर्वक चिकित्सा की। अमेरिका के डॉ0 जॉन डोन ने रंग चिकित्सा से टी. बी. जैसी प्राणघातक बीमारी के रोगाणुओं को नष्ट करने और इससे संत्रस्त व्यक्तियों की प्राण रक्षा करने में अभूतपूर्व सफलता अर्जित की है। डॉ. जेम्सकुक, ए. बी. गार्डेन, एच. जी. वेल्स प्रजृति विख्यात मनीषियों ने भी क्रोमोथेरेपी पर गंभीर खोजें की हैं। और इसे रोग निवारक पाया है।
सूर्य चिकित्सा के सिद्धान्त के अनुसार रुग्णता का कारण शरीर में रंगों का घटना-बढ़ना है। मानवी काया की संरचना जिन पंच भौतिक तत्वों से हुई है उनके अपने रंग और प्रभाव हैं और यह सभी तत्व सूक्ष्म रूप से सूर्य किरणों में सूक्ष्म रूप से विद्यमान हैं। आधुनिक विज्ञानवेत्ता भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि मनुष्य शरीर में विविध रंग एक रासायनिक सम्मिश्रण के रूप में विद्यमान होते हैं। इनकी उपस्थिति विभिन्न अंगों में घटक अवयवों में अलग-अलग वर्णों के रूप में देखी जाती है। इन रंगों की न्यूनाधिकता से विभिन्न रोग उत्पन्न होते हैं। इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक मेरी एर्ण्डसन ने अपनी कृति “कलर हीलिंग“ में कहा है कि सूर्य किरणों में सन्निहित रंग की जीवन का आधार है। प्राणऊर्जा का उभार उन्नयन इन्हीं की देन है। उनके अनुसार सौंदर्य छटा बिखेरने वाले मनोरम रंगों की उपस्थिति न केवल सृष्टि संरचना में भाग लेने वाले तत्वों में विद्यमान हैं, वरन् मानवी काय संरचना के सभी घटक भी रंगीन हैं। शरीर का हर रंग अवयव कोई न कोई रंग लिए हुए है। रक्त, माँस, मज्जा, मेद, हड्डी, फेफड़े, हृदय आंतें, यकृत, गुर्दे, आदि के अपने-अपने रंग हैं। यह सभी अवयव एक ओर जहाँ सतत् एक प्रकार की ऊर्जा तरंगों का विकिरण करते रहते हैं, वहीं दूसरी ओर सूर्य से अपनी आवश्यकता के अनुरूप विविध रंग की किरणों को भी आकर्षित-अवशोषित करते रहते हैं। इस आदान-प्रदान में व्यवधान पड़ने पर मनुष्य शारीरिक मानसिक रूप से रुग्ण रहने लगता है जिसे रंग चिकित्सा द्वारा दूर किया जा सकता है।
प्रसिद्ध चिकित्साशास्त्री डॉ. विलियम बेनहेम
एनो का कहना है कि मनुष्य की समूची काया रंगों का पिण्ड है जिसकी प्रत्येक कोशिका से रंगीन ऊर्जा तरंगों का फव्वारा फूटता रहता है। इन ऊर्जा तरंगों का सौर ऊर्जा तरंगों से एक प्रकार का सघन आदान-प्रदान चलता रहता है। जब कभी उसमें व्यवधान पड़ता है तो मनुष्य शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक रूप से बीमार रहने लगता है शारीरिक संरचना में भाग लेने वाले घटकों, रासायनिक तत्वों के साथ उनके रंगों के अनुपात में भी असंतुलन पैदा हो जाता है जिसे रंग चिकित्सा द्वारा दूर किया जा सकता है। उनके अनुसार नीले रंग की प्रकाश रश्मियों के प्रयोग से अतिसार, संग्रहणी, खाँसी, श्वास, मूत्र विकार, बुखार, सिरदर्द, प्रमेह आदि तथा लाल रंग की किरणों के द्वारा सभी प्रकार के वायु विकार एवं बात-व्याधियों का निवारण संभव है। इसी तरह हरे रंग से सभी प्रकार के चर्म रोगों एवं अन्यान्य व्यथाओं का उपचार किया जा सकता है।
सूर्य चिकित्सा विज्ञानों के अनुसार लाल, पीला और नीला-यही प्रमुख तीन रंग हैं, अन्य सभी मिश्रित श्रेणी के रंगों में गिने जात हैं। इनमें से लाल रंग की प्रकाश रश्मियों का प्रयोग ठण्ड जनित रोगों, रक्त विकार एवं चर्म रोगों में किया जाता है। रक्त की कमी, उदासी, निराशा की मनः स्थिति में लाल कपड़े पहनने तथा उससे रंगी वस्तुओं के संपर्क में रहने से लाभ होता है। लाल रंग का ध्यान भी उपयुक्त पाया गया है। गठिया, लकवा, सूजन, दर्द आदि में लाल रंग प्रयुक्त होता है। यहाँ यह ध्यान रखने योग्य बात है कि उत्तेजना उत्पन्न करने के कारण लाल रंग का सेवन बहुत सावधानीपूर्वक किया जाता है, अन्यथा इसकी अधिकता नुकसानदायक भी होती है।
पीले रंग की प्रकाश किरणों में पाचन का विशेष गुण होता है। अपच या शरीर की परिपाक प्रक्रिया शिथिल हो जाने पर इन रंग-रश्मियों का प्रयोग लाभकारी होता है। कफ ज्वर, खुजली आदि रोगों में अन्दर जमी हुई विकृतियाँ ही प्रधान कारण होती हैं जिन्हें निकाल बाहर करने में पीले रंग को बहुत ही उपयुक्त पाया गया है। इसी प्रकार नीला रंग शीतलता प्रधान होने के कारण गर्मी से उत्पन्न होने वाले रोगों में लाभदायक माना गया है। सिर दर्द नेत्र विकार, अनिद्रा, उच्च रक्त चाप, उत्तेजना, जैसे उष्णता प्रधान रोगों में नीले रंग का उपचार किया जाता है। लू-लगने, फोड़ा फुन्सी उठने, जहरीले कीड़े के काट लेने पर नीले रंग का कपड़ा पानी में भिगोकर पीड़ित अंग पर रखने से ठंडक की अनुभूति होती है। सूखी खाँसी, श्वास में भी इस वर्ण के उपयोग से राहत मिलती है।
मिश्रित रंग की प्रकाश रश्मियों का अपना अलग ही प्रभाव होता है। लाल और पीले रंग से बना नारंगी रंग प्राण संवर्धन के लिए प्रसिद्ध है। कैल्शियम के चयापचय में इस रंग की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। एण्टी-स्पास्मोडिक गुणों से युक्त होने के कारण यह माँस पेशियों की ऐंठन-जकड़न को दूर करता एवं अग्नाशय एवं तिल्ली को सक्रिय बनाता है। फेफड़ों को शक्तिशाली बनाने, नाड़ी गति को तीव्र करने एवं रक्तचाप नियंत्रित करने में भी यह रंग प्रयुक्त होता है।
‘जामुनी रंग का निर्माण लाल और आसमानी रंग के मिलने से होता है। दर्द निवारण के साथ ही यह किरणें ज्वर को दूर करने तथा रक्त शिराओं को उत्तेजना प्रदान करने में प्रयुक्त होती हैं। जब कि सिंदूरी रंग की किरणें गुर्दे को सक्रिय एवं स्वस्थ बनाती हैं। यह आसमानी रंग की अधिकता तथा लाल रंग की अल्प मात्रा के मिलने से बनता है। लेमन कलर हलके पीले और हलके हरे रंग के सम्मिश्रण से बनता है। विषैले तत्वों को शरीर से निकाल बाहर करने तथा व्यक्ति को नव-जीवन प्रदान करने में इन रंग प्रकंपनों की सक्रिय भूमिका होती है। लेमन कलर मस्तिष्क के सेरिब्रम भाग को प्रभावित कर थायमस नामक अंतःस्रावी ग्रन्थि को उत्तेजित करता है और बौनेपन को दूर करता है। इसी तरह लाल और बैंगनी कलर मिलकर ‘मैजेन्टा कलर’ बनाते हैं। यह रंग एड्रीनल ग्रन्थि एवं हृदय को शक्ति प्रदान करत है, साथ ही गुर्दे से सम्बन्धित बीमारियों का उपचार भी इससे हो जाता है। भावनात्मक स्थिरता प्रदान करने में भी इसे प्रयुक्त किया जाता है। सुप्रसिद्ध सूर्य चिकित्सा विज्ञानी सोलेन के शब्दों में सूर्य की सप्तवर्णी किरणों में जितनी रोग नाशक क्षमता विद्यमान है उतनी संसार के किसी भी पदार्थ या औषधि में नहीं है, आवश्यकता मात्र सही तरीके से प्रयोग करने भर की है।