
पतझड़ को वसंत में बदलने का महाकाल का संकल्प
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किसी कुप्रचलन को इसलिए मान्यता नहीं मिलनी चाहिए कि वह पुरातन काल से प्रयोग में आता रहा है। आदिमकाल का मनुष्य जब कपड़े बनाना या पहनना नहीं जानता था, तब नंगे शरीर रहता था या पत्ते आदि से कुछ अंग ढक लेता था। अब विकसित सभ्यता के जमाने में जब वस्त्रों का प्रचलन हर स्थान में होने लगा तो कोई जी समझदार मनुष्य नंगा रहना पसंद नहीं करेगा। अब मनुष्य ने अपनी जरूरतें भी बदल ली हैं। और भोजन की तरह वस्त्र भी दैनिक प्रयोग की वस्तु बन गये हैं। कोई समय ऐसा भी रहा है जब मिट्टी के बर्तन ही उपलब्ध थे, पर अब तो उनके स्थान पर धातुएँ प्रयोग में आने लगी हैं। कभी बाल काटने का रिवाज नहीं था, पर अब तो अधिकाँश लोग दाढ़ी-मूँछ काटने-छाँटने लगे हैं। इन सामयिक परिवर्तनों को कोई बुरा नहीं मानता।
प्राचीन काल में स्त्रियाँ भोजन पकाने और बच्चे पालने के काम भर में अभ्यासी थीं। तब उन्हें वही काम सौंप दिया गया था। उनने उसे स्वेच्छापूर्वक अपना लिया। रिवाज बढ़ते-बढ़ते यहाँ तक पहुँचा कि उन्हें उतनी ही सीमा में प्रतिबंधित भी किया जाने लगा। जो काम पुरुषों की तरह स्त्रियाँ कर सकती थीं, उन पर प्रतिबंध लगा दिया गया। व्यवसाय जैसे कार्यों में एक तो वैसे ही वे अनुभवहीनता की पिछड़ी स्थिति में थीं, इस पर भी उस क्षेत्र में प्रवेश न करने के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया ऐसे ही और भी प्रतिबंध अन्य क्षेत्रों में लगे और उन्हें उन कामों को करने से रोक दिया गया। स्वभावतः नर और नारी एक ही सिक्के के दो पहलू, एक ही गाड़ी के दो पहिए, एक ही शरीर के साथ जुड़े हुए दो हाथ या दो पैर हैं। दोनों की क्षमता या दक्षता में कोई अन्तर नहीं है। सच पूछा जाय तो नारी कितनी ही बातों में वरिष्ठ एवं सक्षम है, जब कि पुरुष उन्हें नहीं कर पाता। गर्भधारण शिशु पालन जैसे कार्यों में नारी अग्रणी है, जबकि पुरुष से उन कार्यों का बन पड़ना कठिन है। गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से भी नारी कोमल, दयाशील, सेवाभावी और क्षमाशील है, जब कि इन सब गुणों की पुरुष में बहुत कमी पायी जाती है।
प्रयोग में न आने पर कई विशेषतायें क्षीण हो जाती हैं। पुरुषों को श्रम परायण और साहसी रहना पड़ा, जबकि महिलाओं को उनका प्रयोग प्रायः नहीं करना पड़ा, अतएव वे इस दृष्टि से पिछड़ गयीं। यह संयोग की ही बात थी, जबकि उसे उनकी दुर्बलता मान लिया गया और वे इस दृष्टि से कनिष्ठ समझी जाने लगी॥ उनके साथ व्यवहार भी वैसा ही चल पड़ा मानो वे सचमुच अयोग्य या असमर्थ हों, जब कि बात वैसी है नहीं। जब भी अवसर आया है, सुयोग मिला है तब-तब नारी ने अपनी गरिमा का वैसा ही परिचय दिया है जैसा कि आमतौर से मर्द किया करते थे। अनेक प्रसंग ऐसे भी हैं। जिनमें नारी ने नर की तुलना में कितनी ही प्रतिस्पर्धाएं जीतीं हैं और अपनी समता का ही नहीं, वरिष्ठता का भी परिचय दिया है। शारीरिक न्यूनाधिकता का कोई बड़ा फर्क नहीं होता। पशु−पक्षियों में भी नर-मादा दोनों ही प्रायः एक जैसी क्षमता के होते हैं। थोड़ा बहुत अंतर ही कभी किसी की बनावट में देखने को मिलता है। वह इतना बड़ा नहीं होता कि किसी को बहुत समर्थ और दूसरे को अत्यंत दुर्बल ठहराया जा सके। मनुष्यों में भी नर-नारी के सम्बन्ध में यही बात है। जिन देशों में नारी प्रधान कुटुम्बों की परम्परा चलती है, वहाँ नारी का दर्जा हर दृष्टि से बड़ा माना जाता है और पुरुषों को उनके आज्ञानुवर्ती बनना और चलना पड़ता है।
अब भी शिक्षा में अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होना, प्रतिस्पर्धाओं में आगे रहना, संगीत, साहित्य, कला जैसे विषयों में अपनी वरिष्ठता वे ही सिद्ध करती देखी गयी हैं। शारीरिक सौंदर्य और स्वभावगत सहिष्णुता की दृष्टि से उन्हें प्रायः अग्रणी ही पाया जाता है। चतुरता कठोरता, धूर्तता जैसी विशेषताओं को यदि सराहनीय माना जाता हो तो ही मर्द किसी कदर अपने को बढ़ा-बढ़ा जान सकता है।
वास्तविकता यह है कि मनुष्य जाति में दो अविच्छिन्न पक्ष नर और नारी है। उनमें से न कोई छोटा है न बड़ा न कोई वरिष्ठ है न कोई कनिष्ठ। यह बात दूसरी है कि यदि अवसर न ले तो कार्यान्वयन के अभाव में किसी को पिछड़ी स्थिति में रहना पड़े। प्रजनन नारी का विशेष गुण है और वह इतना महत्वपूर्ण है कि यदि उसकी दुर्दशा एक शताब्दी तक भी बनी रहे तो समझना चाहिए कि संसार में से मनुष्य जाति का अस्तित्व ही सदा-सर्वदा के लिए समाप्त हो गया। पिता के न रहने पर माता किसी प्रकार बालकों को पाल-पोष लेती है, पर माता का अभाव रहने पर बच्चे या तो जीवित ही नहीं रह पाते अथवा अनेक दृष्टियों से पिछड़े रह जाते हैं।
शास्त्रकारों ने ईश्वर की प्रार्थना करते हुए प्रथम उसे माता के रूप में स्मरण किया। इसके बाद पिता को स्थान दिया गया है। युग्मों का जहाँ जी उल्लेख है वहाँ प्रथम नारी और द्वितीय नर का स्थान है। लक्ष्मीनारायण सीताराम, राधेश्याम, उमा-महेश, सावित्री-सत्यवान आदि की युग्म शृंखला में नारी की प्राथमिकता है। देवी पूजन में कन्या पूजा का विधान है, जब कि देवताओं के स्थान पर लड़कों को विराजमान नहीं किया जाता है। देवी-देवताओं का जहाँ भी उल्लेख आता है, वहाँ नारी को ही प्राथमिकता दी जाती है। लक्ष्मी गणेश की अभ्यर्थना में दीपावली के अवसर पर प्राथमिकता लक्ष्मी को ही मिलती है। पशुओं में भी इसी प्रकार का प्रचलन है। गाय और बैल में से प्राथमिकता गौ को ही ठहरती है। इस प्रकार के प्रमाणों से प्रकट है कि नारी को साँस्कृतिक और उपयोगिता की दोनों ही दृष्टि से प्राथमिकता प्राप्त है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि अर्थ उपार्जन के स्रोत पुरुष के हाथ में चले जाने के कारण उसी ने अपने को वरिष्ठ ठहराया, जबकि यदि नर को गृहव्यवस्था संभालनी पड़े और नारी आर्थिक उपार्जन के क्षेत्र में बढ़ चले तो उसकी समर्थता ही अधिक सिद्ध हो सकती है। अब भी खेल, परीक्षाओं की प्रतिस्पर्धाओं में महिलायें अधिक अच्छे नम्बर लाती हैं और अधिक सफल सिद्ध होती हैं। कला क्षेत्र पर तो उनका एकाधिपत्य है ही।
भूलों को सुधारा जाता रहा है। गलतियों का प्रायश्चित होता रहा है। लम्बे समय से चले आ रहे नर और नारी के बीच बढ़ते अनौचित्य का अन्त आने का समय अब आ गया। आधी जनसंख्या का मनोबल गिराने और उसके स्वाभाविक मानवाधिकारों से वंचित करके मात्र नारी ही घाटे में नहीं रही, नर को उससे जी अधिक घाटा सहना पड़ा है। गाड़ी का एक बैल दुर्बल हो जाने पर उसके बदले का भार दूसरे बैल को ही सहना पड़ता है। पक्षाघात से आधा अंग बेकार हो जाय तो दूसरे को उसके बदले का दबाव सहना पड़ता है एक हाथ का एक पैर का आदमी प्रायः आधा ही काम कर सकता है। एक पहिए की गाड़ी किसी प्रकार आधा अधूरा काम ही कर पाती है। युग्म जिनके भी जहाँ बने हैं, वे एक दूसरे के पूरक रहे हैं। इसमें से एक दुबला रहे दूसरे को उसकी क्षति उठाये बिना न रहना पड़ेगा। नर और नारी यदि कंधे मिलाकर रहे होते तो दोनों नफे में रहते। जहाँ वैसा प्रचलन है वहाँ प्रगति को विकसित रूप में देखा जाता है। जापान अमेरिका, इसराइल, जर्मनी, चीन, रूस आदि विकसित देशों की जनता जितनी बलिष्ठ और समृद्ध है, उसका बड़ा श्रेय वहाँ के नारी समुदाय को ही जाता है। भारतीय महिलाओं का पुरातन इतिहास तो हर क्षेत्र में मूर्धन्य रहा है। वे अपने भाइयों, पतियों, पुत्रों के लिए शक्तिस्रोत बनकर रही हैं। वयोवृद्ध भी अपनी लड़कियों पर गर्व करते रहे हैं। एकाकी पुरुषों एवं एकाकी कार्यों में जितने जी पराक्रम-पुरुषार्थ देखते बन पड़ते हैं, वहाँ नारियों की गरिमा ही अधिक दिखती है। पुरुष तो इस अभाव के रहते अनेक कमियों के केन्द्र रहे हैं। यहाँ तक कि विधुर या अविवाहितों की मरण संख्या ही अधिक रही है। आज नारी अपने ऊपर थोपी गई असमर्थता के कारण दुर्बल होकर रह रही है, पर शुरू में वह वैसी नहीं थी। जब उसे अवाँछनीय बंधनों में न बाँधने का न्यायोचित समय था, तब नारियों ने हर दृष्टि से अपने को कनिष्ठ नहीं, वरिष्ठ ही सिद्ध किया है।
समय चक्र सदा-सदा से घूमता रहा है। वह लौटकर अपनी जगह आ जाता है। सूर्य पहले दिन में पूर्व से निकलता है। शाम को वह पश्चिम में अस्त तो होता है, पर सदा नहीं डूबा रहता है और दूसरे दिन फिर नये उत्साह के साथ पुनः उसी पूर्व दिशा में उदय होता है जिसमें कि वह पहले दिन उदय हुआ था। पतझड़ में वृक्ष के पत्ते गिर तो जाते हैं, पर वसंत आते ही वे नये कोपलों से लद जाते हैं और फूल-फलों से लदे हुए पाये जाते हैं।
समय चक्र ने नारी को भी दुर्गति से निकालने का निश्चय किया है। महाकाल के अभिनव वसंत ने पतझड़ को वसंत में परिवर्तित करने का निश्चय कर लिया है, साथ ही नारी के वर्चस्व को लौटाने का भी। इक्कीसवीं सदी नारी शताब्दी घोषित की गयी है जिसमें नारी के पिछड़ेपन की अन्तता दिख रही है। देखने को यह भी दिखेगा कि वह अपने साथी से किसी भी क्षेत्र में नहीं पीछे रह गयी, लेकिन दस कदम आगे ही बढ़ गयी है।