
दर्शन बदलता है, युग की परिस्थितियों को
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दर्शन क्या है? कुछ औंधे-सीधे विचारों को अव्यवस्थित रूप में रख देना? या एक ऐसी समृद्ध चिंतन-प्रणाली प्रस्तुत करना, जिससे समय, समाज एवं समस्त विश्व का समग्र विकास सम्भव हो सके? सुकरात के शब्दों में कहें, तो वास्तविक दर्शन यही है।
किन्तु इन दिनों दर्शनों की ऐसी बाढ़ आयी है कि विचार और दर्शन में कोई अंतर ही नहीं रहा। जब भी किसी के मन में कोई नयी सोच उभरी, उसको लिपिबद्ध कर दिया। बस, वह उसके द्वारा प्रतिपादित दर्शन बन गया। भले ही वह सैद्धान्तिक ही क्यों न हो समय की आवश्यकता पूर्ति करती हो अथवा नहीं, वह दर्शन है। सन 1896 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय की स्नातक दर्शन परिषद में व्याख्यान देते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि जिसमें व्यावहारिकता हो, जो संपूर्ण जीवन-शैली को प्रभावित करता हो, जिसमें समाज को मार्गदर्शन करने की सामर्थ्य हो, सही अर्थों में वही सच्चा दर्शन है, शेष सभी विचारधारा है। लिबनिज, काण्ट, हेगल, स्पिनोजा सभी ने ईश्वर संबंधी अपने-अपने मत भर प्रकट किये है, अतः वे विचारक तो हो सकते हैं, दार्शनिक नहीं। जहाँ फिलॉसफी होती है, वहाँ क्राँति होती है, समग्र परिवर्तन होता है, जबकि विशिष्ट विचारधारा कुछ एक अनुयायी भर पैदा कर पाती है, कोई नया समाज अथवा व्यवस्था नहीं। कतिपय नवीन चिंतन देकर फिलॉसफर बन बैठना-यह पश्चिम की पद्धति और देन है। भारत जैसे पूर्वी देशों में तो दर्शन समाज परिवर्तन का सुनिश्चित आधार माना जाता है। गाँधीजी ने ग्रामोद्योग पर आधारित दर्शन दिया था और कहा था कि हर हाथ को काम और हर पेट को अनाज इसी के माध्यम से संभव है। आर्थिक स्वावलंबन इसी के द्वारा हस्तगत किया जा सकता है। भारत का जब कभी आर्थिक कायाकल्प होगा, इसी आधार पर संपन्न होगा।
एक समय था, जब संपूर्ण विश्व में मार्क्सवाद की बड़ी धूम थी। उसने अर्थतंत्र से संबंधित इतनी सशक्त विचारधारा दी थी कि संसार में उससे क्राँति हो गई। विश्व के आधे से अधिक देश उस विचारधारा को अपनाने के लिए विवश हो गये। इस आधार पर उन देशों ने एक नई समाज व्यवस्था को जन्म दिया, जिसका नाम समाजवादी समाज-व्यवस्था रखा गया। ईसा के दर्शन को जब लोगों ने हृदयंगम किया, तो दुनिया में ईसाईयत फैल गई। रूसो फिलॉसफर थे। मौलिक चिंतन के राजतंत्र के जमाने में जब उनने राजे-और सामंतों की तानाशाही और निरंकुशता देखी, तो उनके अंदर का दार्शनिक जाग उठा और एक नई व्यवस्था “डेमोक्रेसी” का प्रतिपादन किया। जिन दिनों की यह बात है, उन दिनों जब सर्वप्रथम इसे प्रस्तुत किया गया, तो लोगों ने इसकी बड़ी हँसी उड़ायी, कहा-यह दर्शन नहीं, पागलपन है। भला जनता, जनता पर किस प्रकार शासन कर सकती है? किन्तु आज वही पागलपन किस तरह सारी धरती में अपना प्रभुत्व जमाये हुए है-यह सर्वविदित है। यह एक लाँसर की शक्ति है। ऐसी विचार-चेतना जब कभी जहाँ भी अवतरित हुई है, उसने सुषुप्ति तोड़ी और मूर्च्छना मरोड़ी।
बुद्ध अपने काल के सशक्त मनीषी थे। जहाँ मनीषा जन्म लेती है, वहीं मनीषी का अवतरण होता है। ऐसे मनीषी जब धरित्री पर आविर्भूत होते हैं, तो समाज के जरा-जीर्ण कलेवर का उद्धार हो जाता है। उसमें नयी चेतना पैदा होती है, नई व्यवस्था आती है, नई स्फूर्ति और उमंग का आविर्भाव होता है। यह मनीषी की मनीषा की सामर्थ्य है। दर्शन इसी से उत्पन्न होता है, बुद्ध ने जब अपने समय को देखा, तो उन्हें घोर वितृष्णा हुई। उस जमाने की कुप्रथाओं से उन्हें इतनी घृणा हुई कि उनने समाज को एक अभिनव सूत्र दिया- “बुद्धं शरणं गच्छामि” बुद्धि की, विवेकशीलता की, समझदारी की शरण में आओ-उनने इसका आह्वान किया। “संघं शरणं गच्छामि”-संघबद्ध होकर काम करो- अपनी ढपली, अपना राग मत गुनगुनाओ, समाज की सेवा संगठित होकर ही की जा सकती है-लोगों को इसका उनने प्रथम पाठ पढ़ाया “धम्मं शरणं गच्छामि”-आज का जो सर्वोपरि धर्म-समाज सेवा है, उसे समझो और अपनालो, इसका उपदेश किया।
इस बुद्ध दर्शन ने जन-चेतना में जो उथल-पुथल मचायी, वह असाधारण थी। संपूर्ण उत्तर पूर्व इससे इस कदर प्रभावित हुआ, जिसकी छाप आज तक विद्यमान है। इस प्रकार के करतब कर दिखाने वालों को मनीषी कहते हैं। मनीषी विचार नहीं, दर्शन देते हैं-एक ऐसा दर्शन, जो लम्बे समय तक समाज का मार्गदर्शन करता रहे। समस्याओं का समाधान सुझाता रहे- उलझनों को घटाता-मिटाता रहे। ऐसे लोग भारत में प्राचीन समय में बहुतायत से हुए थे। ये ऋषि कहलाये इनने भारतीय संस्कृति को एक समृद्ध चिंतन और सर्वांगपूर्ण दर्शन दिया। इसी दर्शन ने इस भूमि में इतने सार महामानव, अवतार, युगपुरुष, समाज सुधारक, ऋषि-मनीषी पैदा किये कि इसे देवभूमि कहा जाने लगा। इसकी तुलना स्वर्ग से की जाने लगी। इसे स्वर्ण की उपमा दी जाने लगी-ऐसा स्वर्ग जिसमें जीवन्त देवता रहते हों-चलते- फिरते प्रत्यक्ष देव निवास करते हों। ऐसे देव जहाँ भी रहेंगे, वहाँ स्वर्ग की अनुभूति स्वाभाविक है। इमर्सन कहा करते थे “मुझे नरक में भेज दो, मैं वहीं स्वर्ग पैदा कर दूँगा।” यह फिलॉसफी की शक्ति है, शिक्षा या वातावरण की नहीं। शिक्षा और वातावरण तो कई देशों में भारत जैसे रहे हैं, पर वहाँ वह संस्कृति और विद्या नहीं है, इसलिए वे-वहाँ के निवासी भारत जैसे नहीं बन सके।
वर्तमान में सर्वत्र अराजकता और अव्यवस्था का दौर-दौरा इसलिए दीख पड़ता है, क्योंकि आज दर्शन के नाम पर वितंडावाद ज्यादा चल पड़ा है। सब अपने नाम-यश के पीछे भागते प्रतीत होते हैं। जब स्थिति ऐसी हो जाय, जिसमें व्यक्ति प्रमुख और समाज को गौण माना जाना लगे, तो दशा दयनीय और दुःखद होनी स्वाभाविक है। एक वानगी के सहारे भली-भाँति समझा जा सकता है कि सम्प्रति किस प्रकार लोग एक दूसरे पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश कर स्वयं को यशस्वी बनाने की चेष्टा कर रहे हैं। कई वर्ष पूर्व प्रूधों ने गरीबों पर एक पुस्तक लिखी। नाम रखा- “फिलॉसफी ऑफ पोवरटी” अर्थात् “दरिद्रता का दर्शन” इसके कुछ समय पश्चात मार्क्स ने इसके जवाब में एक दूसरा ग्रंथ लिखा - “पोवरटी ऑफ फिलॉसफी “ अर्थात् “दर्शन की दरिद्रता”। उक्त रचना में कई प्रकार के तर्कों द्वारा प्रूधों के तथ्यपूर्ण विचार को गलत साबित करने का प्रयास किया है। जब स्वयं को श्रेष्ठ और वरिष्ठ सिद्ध करने के लिए दूसरों को निकृष्ट बताने की प्रतिस्पर्धा चल पड़े, तो समाज की जो दुरवस्था हो सकती है, वही आजकल दिखाई पड़ रही है। इसी दिशा में सारा श्रम, समय, क्षमता, प्रतिभा चुकते दृष्टिगोचर हो रहे हैं। जब समाज-निर्माण में काम आने वाली क्षमताओं का दुरुपयोग होने लगे, तो उससे उत्पन्न होने वाले दर्शन का अन्दाज लगाया जा सकता है। आज इसी भ्रष्ट दर्शन ने समाज की यह गति बनायी है। जब भौतिकवादी दर्शन भोगवाद के “ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत” के चरमोत्कर्ष पर पहुँच जाय, तो समय का प्रवाह किस ओर होगा, इसका अनुमान लगाना, कोई बहुत मुश्किल नहीं।
“ह्वट इज फिलॉसफी?” नामक कृति में मूर्धन्य विचारक फ्रैंक विली ने इसी पर विचार किया है। वे लिखते हैं कि फिलॉसफी चिंतन प्रणाली कम, जीवन विधा अधिक है। यह सिद्धान्त नहीं, व्यवहार है। उनके अनुसार जिस दर्शन में जीव जीने की कला का अभाव हो, जो व्यक्ति-निर्माण की प्रक्रिया नहीं बता पाता हो एवं जहाँ अपकर्ष से उत्कर्ष की ओर जाने का कोई मार्ग न हो, वह दर्शन नहीं हो सकता। व कहते हैं कि दर्शन में इतनी सामर्थ्य होनी चाहिए कि वह मानवी जीवन को चरम लक्ष्य तक पहुँचा सके। यहाँ उनके विचार भारतीय अध्यात्म से बिलकुल मिलते-जुलते हैं। वस्तुतः भारतीय अध्यात्म में ही इतनी शक्ति है कि वह जीवन के अंतिम ध्येय तक व्यक्ति को पहुँचा सके, किन्तु थिली के अनुसार आज वह भी असहाय इसलिए लग रहा है क्योंकि इन दिनों पूर्वी अध्यात्म पर पश्चिमी विचारधारा हावी है। वह मात्र कथन, श्रवण एवं मानसिक ऐयाशी जैसा विषय बन कर रह गया है।
ऐसी दशा में अध्यात्म को जी कर दिखाने की आवश्यकता पड़ी, ताकि लोगों को आश्वस्त किया जा सके कि यह किसी भी प्रकार घाटे का सौदा नहीं, है, इसमें हर तरह से लाभ-ही-लाभ है। यह काम शाँतिकुँज के संचालक ने बखूबी पूरा किया। आज उसी का परिणाम है कि उनके जीवन-दर्शन पर आधारित “युग-निर्माण योजना, प्रज्ञा अभियान” आन्दोलन द्रुत गति से अपना कलेवर-विस्तार करता चल रहा है। अगले दिनों यह विश्वव्यापी बनकर “युग परिवर्तन” का अपना महती प्रयोजन पूरा कर ले, तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए, वरन् इसे उनके द्वारा प्रतिपादित क्राँतिकारी दर्शन का सत्परिणाम मानना चाहिए।