
मखौल मत करिए
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मित्रो! सारे का सारा अध्यात्म वास्तव में भावनाओं का खेल है, और कुछ नहीं। इसमें कर्मकाण्डों की कीमत राई की नोंक के बराबर है और इसमें जो सारी की सारी शक्ति और सामर्थ्य भरी पड़ी है, यह चिंतन के ऊपर टिकी पड़ी है, आस्थाओं के ऊपर टिकी पड़ी है, दबी पड़ी है, विचारणाओं के ऊपर जमी पड़ी है। अगर आपके पास विचारणाएँ नहीं हैं, आस्थाएँ नहीं हैं, मान्यताएँ नहीं हैं, श्रद्धा आपके पास नहीं है तो समझना चाहिए कि केवल आप खेल-खिलौने बना रहे हैं और मखौल कर रहे हैं। किसका कर रहे हैं? उस पवित्रता का। एक बूँद पानी सिर पर छिड़क लिया और हो गया पवित्र। मुझे एक घटना याद आ गई—कुंभ के मेले का मार्जन स्नान। एक बहुत बड़े नेता थे, नाम तो मैं नहीं लूँगा। उस कुंभ मेले में सब लोग गए। चलिए साहब! आज कुंभ का स्नान है, सब लोग नहाइए। नेता जी पैंट पहने हुए थे, बोले—हम तो नहीं नहा सकते। इस बावत नाव में बैठे हुए थे। पंडे को मजाक सूझा और उसने कहा कि आप ऐसा कर लीजिए कि मार्जन स्नान कर लीजिए। मार्जन स्नान क्या होता है? आप अपने शरीर पर छींटे लगा लीजिए। इससे क्या हो जाएगा? इससे आपको कुंभ के दिन गंगा जी में स्नान का पुण्य मिल जाएगा। इस पर नेता जी रजामंद हो गए। पंडे ने गंगाजल लाकर दिया और उन्होंने ऐसा ही किया। हो गया स्नान? क्यों साहब! हो गया। अगर आप भी ऐसा ही स्नान करते हैं, ऐसा ही पवित्रीकरण करते हैं, पवित्रीकरण का ऐसा ही मखौल बनाते हैं तो आपकी मरजी, लेकिन अगर आप वास्तव में मखौल नहीं बनाते हैं, तो आपको गहराई में प्रवेश करना पड़ेगा और यह विचार करना पड़ेगा कि हमारे ऊपर पवित्रता की वर्षा होती है। जैसे देवता फूलों की वर्षा करते थे, उसी प्रकार से इस बादल में से, इस अनंत आकाश में से ऐसी वर्षा होती चली जा रही है। ऐसा बादल बरसता चला जा रहा है, जिसकी सघन बौछार हमारे ऊपर होती चली जा रही है, जो हमको शुद्ध और पवित्र करता चला जाता है। पवित्रीकरण करते समय आप यह अनुभव करें।