धर्मनिष्ठा आज की सर्वोपरि आवश्यकता (भाग ३)
विभिन्न क्षेत्रों में सत्ताधारी बने हुए अवाँछनीय व्यक्तियों को पदच्युत करने की बात ठीक है। जिनने अपने उपलब्ध साधनों का दुरुपयोग किया वे इसी लायक हैं कि उनकी कलंक कालिमा को जनसाधारण के सामने इस प्रकार लाया जाय कि वे लोक घृणा से दबकर अपने आपको कुँभी पाक नरक में घिरा और वैतरणी नदी की कीचड़ में धँसा इसी जीवन में पायें और जो लाभ उठाया उससे हजार गुनी धिक्कार की प्रताड़ना सहें। यह प्रताड़ना और बहिष्कृति इसलिये भी आवश्यक है कि दूसरे लोग उस घृणित मार्ग का अवलम्बन न करें। समाज को संकट में डाल देने वाले राजनेता, साहित्यकार, कलाकार, धर्माधिकारी, विद्वान, विचारक, धनपति आदि के प्रति आज के आकर्षण और सम्मान का अन्त किया ही जाना चाहिए और उनके द्वारा किस प्रकार मानव-जाति को संकट में फँसा दिया गया उसका नंगा चित्र सबकी आँखें में लाया ही जाना चाहिए।
पर इतने से भी काम न चलेगा। इन स्थानों की पूर्ति के लिए ऐसे व्यक्तित्व तैयार करने होंगे जो प्रतिपादन से आगे बढ़कर अपनी प्रामाणिकता सिद्ध कर चुके हैं। ऑपरेशन करने में जितना समय, श्रम, मनोयोग और कौशल लगता है उससे अधिक घाव को भरने और अच्छा करने की अभीष्ट होता है। मुख्य समस्या यही है। समाज को प्रभावित करने वाले विभिन्न वर्गों के सत्ताधिकारी बलपूर्वक ही हटाये जाएं यह आवश्यक नहीं। हर क्षेत्र में उनकी प्रतिद्वंद्विता करने वाले सुयोग्य व्यक्ति खड़े हो जायें तो जनता तुलनात्मक दृष्टि से देखना और सोचना आरम्भ करेगी और अवाँछनीय, जन-सहयोग के अभाव और जन तिरस्कार के दबाव में अपनी मौत आप ही मर जायेंगे। श्रेष्ठता को सदा सम्मान और सहयोग मिला है। यदि श्रेष्ठता विकसित की जा सके तो निष्कृष्टता को बलपूर्वक हटाने या अपनी मौत मरने देने में से जो भी सरल हो उसे क्रियान्वित होने दिया जा सकता है।
संसार का भविष्य अन्धकार में धकेलने वाली प्रवृत्तियों का प्रतिरोध आवश्यक है। वर्तमान सर्वनाशी दुर्दशा पर कोई भावनाशील व्यक्ति विचार करेगा तो उसे सहसा इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि इह विपन्नता को उत्पन्न करने वाले तथा उसे बनाये रखने के लिए जो भी तत्व उत्तरदायी हैं उन्हें हटाया जाय। जिन प्रवृत्तियों पर इस दुरवस्था की जिम्मेदारी है उनका उन्मूलन किया जाय। व्यक्ति एवं समाज को विनाश से बचाने के लिए इस प्रकार के प्रयास जितने विशाल, जितने व्यापक, जितने समर्थ और जितनी जल्दी हों उतने ही अच्छे हैं। पर यह ध्यान रहे एकाँगी प्रयत्न पर्याप्त न होंगे। अनुपयुक्त का स्थान ग्रहण कर सकने वाले उपयुक्त को समुन्नत करने की आवश्यकता और भी अधिक है। सो यह प्रयत्न किये जाने चाहिए कि सृजन की आवश्यकता पूर्ण कर सकने वाले और बदलते हुए अभिनव विश्व की जिम्मेदारियाँ सँभालने के लिए मजबूत कन्धे वाले और बड़े दिल वाले व्यक्तियों का निर्माण द्रुतगति से आरम्भ कर दिया जाय। वस्तुतः यही बड़ा काम है। यदि इस प्रयोजन की पूर्ति कर ली जाती है तो अशुभ का निराकरण बिना संघर्ष के भी सम्पन्न हो जायगा। प्रकाश का उदय होने पर अंधेरा ठहर कहाँ पाता है।
परिवर्तन के बिना कोई गति नहीं। यह जीवन-मरण का प्रश्न है, जिसे हल करना ही होगा। इस निश्चय के साथ ही हमें इस प्रयोजन के लिए सर्वप्रधान और सर्वप्रथम उपाय के रूप में धर्मनिष्ठा को जन-मानस में प्रतिष्ठापित करने के कार्य को भी हाथ में लेना होगा। इस अध्यात्म, सदाचार, नेकी, सज्जनता, उत्कृष्टता, आदर्शवादिता, मानवता, कर्त्तव्यपरायणता आदि किसी भी नाम से पुकारें इस शब्द भेद से कुछ बनता बिगड़ता नहीं। मूल प्रयोजन यदि पूरा हो सके तो शब्दों में उलझने की जरूरत नहीं रहेगी। इस भावना को व्यक्त करने के लिए चिर-परिचित और सर्वमान्य शब्द ‘धर्मनिष्ठा’ को ही यथावत् चलने दिया जाय तो हर्ज नहीं। बात इतनी भर है कि प्राण का स्थान परिधान को न मिले। साम्प्रदायिक आचार-व्यवहार और रीतिरिवाज एवं प्रथा-परम्परा के आवरण ऐच्छिक रखे जायें, उनमें से कौन किसका अनुसरण करता है इस संदर्भ को व्यक्तिगत अभिरुचि का विषय मान लिया जाय। अनिवार्य तो धर्मनिष्ठा मानी जानी चाहिए जिसका सीधा संबंध आन्तरिक जीवन की चरित्र निष्ठा और बाह्य जीवन की समाज निष्ठा में जोड़ा जाय। जो व्यक्तिगत जीवन में उत्कृष्ट विचारणा एवं पवित्र जीवन की सज्जनता का समुचित समावेश कर सकें और सामूहिक स्वार्थों से अधिक महत्ता दें उसी को धर्मनिष्ठा माना जाय।
जन-जीवन में धर्मनिष्ठा की प्रतिष्ठापनाएँ सदा ही श्रेयस्कर थीं और रहेंगी, पर आज की परिस्थितियों में तो उसे व्यक्ति की सुख-शान्ति और समाज की सुरक्षा समृद्धि की दृष्टि से इतनी अधिक आवश्यक हो गई हैं कि उसकी उपेक्षा तो की ही नहीं जा सकती। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए किया गया प्रयत्न वस्तुतः मानव जाति की महानतम सेवा एवं विश्व को विनाश से बचाने की महती सेवा-साधना मानी जायेगी। हमारा ध्यान इस दिशा में जितना अधिक और जितनी जल्दी जा सके उतना ही उत्तम है।
.... समाप्त
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1972 पृष्ठ 26
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