हमारी वसीयत और विरासत (भाग 5)— जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय
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जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय:—
भगवान की अनुकंपा ही कह सकते हैं, जो अनायास ही हमारे ऊपर पंद्रह वर्ष की उम्र में बरसी और वैसा ही सुयोग बनता चला गया, जो हमारे लिए विधि द्वारा पूर्व से ही नियोजित था। हमारे बचपन में सोचे गए संकल्प को प्रयास के रूप में परिणत होने का सुयोग मिल गया।
पंद्रह वर्ष की आयु थी। प्रातः की उपासना चल रही थी। वसंत पर्व का दिन था। उस दिन ब्रह्ममुहूर्त्त में कोठरी में ही सामने प्रकाश-पुंज के दर्शन हुए। आँखें मलकर देखा कि कहीं कोई भ्रम तो नहीं है। प्रकाश प्रत्यक्ष था। सोचा, कोई भूत-प्रेत या देव-दानव का विग्रह तो नहीं है। ध्यान से देखने पर भी वैसा कुछ लगा नहीं। विस्मय भी हो रहा था और डर भी लग रहा था। स्तब्ध था।
प्रकाश के मध्य में से एक योगी का सूक्ष्मशरीर उभरा। सूक्ष्म इसलिए कि छवि तो दीख पड़ी, पर वह प्रकाश-पुंज के मध्य अधर में लटकी हुई थी। यह कौन है? आश्चर्य!
उस छवि ने बोलना आरंभ किया व कहा— ‘‘हम तुम्हारे साथ तीन जन्मों से जुड़े हैं। मार्गदर्शन करते आ रहे हैं। अब तुम्हारा बचपन छूटते ही आवश्यक मार्गदर्शन करने आए हैं। संभवतः तुम्हें पूर्वजन्मों की स्मृति नहीं है, इसी से भय और आश्चर्य हो रहा है। पिछले जन्मों का विवरण देखो और अपना संदेह निवारण करो।’’ उनकी अनुकंपा हुई और योगनिद्रा जैसी झपकी आने लगी। बैठा रहा, पर स्थिति ऐसी हो गई, मानो मैं निद्राग्रस्त हूँ। तंद्रा सी आने लगी।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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