हमारी वसीयत और विरासत (भाग 9)— जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय
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जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय:—
वह पावन दिन वसंत पर्व का दिन था। प्रातः ब्रह्ममुहूर्त्त था। नित्य की तरह संध्यावंदन का नियम-निर्वाह चल रहा था। प्रकाश-पुंज के रूप में देवात्मा का दिव्य दर्शन, उसी कौतूहल से मन में उठी जिज्ञासा और उसके समाधान का यह उपक्रम चल रहा था। मैंने अपना पिछला जन्म आदि से अंत तक देखा। इसके बाद दूसरा भी। तदुपरांत तीसरा भी। तीनों ही जन्म दिव्य थे; साधना में निरत रहे थे एवं तीनों ही में समाज के नवनिर्माण की महती भूमिका निभानी पड़ी थी। उन सामने उपस्थित देवात्मा के मार्गदर्शन तीनों ही जन्मों में मिलते रहे थे, इसलिए उस समय तक जो अपरिचित जैसा कुछ लगता था, वह दूर हो गया। एक नया भाव जगा— घनिष्ठ आत्मीयता का। उनकी महानता, अनुकंपा और साथ ही अपनी कृतज्ञता का। इस स्थिति ने मन का कायाकल्प कर दिया। कल तक जो परिवार अपना लगता था, वह पराया लगने लगा और जो प्रकाश-पुंज अभी-अभी सामने आया था, वह प्रतीत होने लगा कि मानो यही हमारी आत्मा है। इसी के साथ हमारा भूतकाल बँधा हुआ था और अब जितने दिन जीना है, वह अवधि भी इसी के साथ जुड़ी रहेगी। अपनी ओर से कुछ कहना नहीं; कुछ चाहना नहीं, किंतु दूसरे का जो आदेश हो, उसे प्राणपण से पालन करना— इसी का नाम समर्पण है। समर्पण मैंने उसी दिन प्रकाश-पुंज देवात्मा को किया और उन्हीं को न केवल मार्गदर्शक, वरन् भगवान् के समतुल्य माना। उस संबंध-निर्वाह को प्रायः साठ वर्ष होने को आते हैं। बिना कोई तर्कबुद्धि लड़ाए; बिना कुछ नननुच किए, एक ही इशारे पर— एक ही मार्ग पर गतिशीलता होती रही है। संभव है, या नहीं; अपने बूते यह हो सकेगा या नहीं; इसके परिणाम क्या होंगे? इन प्रश्नों में से एक भी प्रश्न आज तक मन में उठा नहीं।
उस दिन मैंने एक और नई बात समझी कि सिद्धपुरुषों की अनुकंपा मात्र लोकहित के लिए— सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन के निमित्त होती है। उनका न कोई सगा-संबंधी होता है, न उदासीन-विरोधी। किसी को ख्याति, संपदा या कीर्ति दिलाने के लिए उनकी कृपा नहीं बरसती। विराट ब्रह्म— विश्वमानव ही उनका आराध्य होता है। उसी के निमित्त अपने स्वजनों को वे लगाते हैं। अपनी इस नवोदित मान्यता के पीछे रामकृष्ण-विवेकानन्द का— समर्थ रामदास-शिवाजी का— चाणक्य-चंद्रगुप्त का— गाँधी-विनोबा का— बुद्ध-अशोक का गुरु-शिष्य-संबंध स्मरण हो आया। जिनकी आत्मीयता में ऐसा कुछ न हो; सिद्धि-चमत्कार, कौतुक-कौतूहल, दिखाने या सिखाने का क्रियाकलाप चलता रहा हो, समझना चाहिए कि वहाँ गुरु और शिष्य की क्षुद्र प्रवृत्ति है और जादूगर-बाजीगर जैसा कोई खेल-खिलवाड़ चल रहा है।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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