हमारी वसीयत और विरासत (भाग 15)— पिछले तीन जन्मों की एक झाँकी:
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पिछले तीन जन्मों की एक झाँकी:—
पिछले जिन तीन जन्मों का दृश्य गुरुदेव ने हमें दिखाया, उनमें से प्रथम थे संत कबीर, दूसरे समर्थ रामदास, तीसरे रामकृष्ण परमहंस। इन तीनों का कार्यकाल इस प्रकार रहा है— कबीर ई. (सन् 1398 से 1518), समर्थ (सन् 1608 से 1682), श्री रामकृष्ण परमहंस (सन् 1836 से 1887)। यह तीनों ही भारत की संत-सुधारकपरंपरा के उज्ज्वल नक्षत्र रहे हैं। उनके शरीरों द्वारा ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्य संपन्न हुए, जिससे देश, धर्म, समाज और संस्कृति का महान कल्याण हुआ।
भगवान के भक्त तीनों ही थे। इसके बिना आत्मबल की समर्थता और कषाय-कल्मषों का निराकरण कठिन है। किंतु साथ ही भगवान के विश्व-उद्यान को सींचने और समुन्नत-सुविकसित करने की प्रक्रिया भी साथ-साथ ही चलनी चाहिए, जो इन तीनों के जीवनों में यह परंपराएँ भली प्रकार समाहित रहीं।
कबीर को एक मुसलमान जुलाहे ने तालाब के किनारे पड़ा हुआ पाया था। उन्हें कोई ब्राह्मण कन्या अवैध संतान होने के कारण इस प्रकार छोड़ गई थी। जुलाहे ने उन्हें पाल लिया। वे संत तो आजीवन रहे, पर गुजारे के लिए रोटी अपने पैतृक व्यवसाय से कमाते रहे।
अपने बारे में उनने लिखा है—
काशी का मैं बासी ब्राह्मन, नाम मेरा परबीना।
एक बार हर नाम बिसारा, पकरि जुलाहा कीन्हा॥
भई मेरा कौन बुनेगा ताना॥
कबीर ने तत्कालीन हिंदू समाज की कुरीतियाँ और मत-मतांतरों की विग्रह-विडंबनाओं को दूर करने के लिए प्राणपण से प्रयत्न किए। उन पर इसलामविरोधी होने का इलजाम लगाया गया और हाथ-पैरों में लोहे की जंजीर बाँधकर नदी में डलवा दिया गया, पर ईश्वर कृपा से जंजीर टूट गई और वे जीवित बच गए। कुल-वंश को लेकर उन्हें समाज का विग्रह सहना पड़ा, पर वे एकाकी अपने प्रतिपादन पर अड़े रहे। उन दिनों काशी में मृत्यु से स्वर्ग मिलने और मगहर में मरने पर नरक जाने की मान्यता प्रचलित थी। वे इसका खंडन करने के लिए अंतिम दिनों मगहर ही चले गए और वहीं शरीर छोड़ा। कबीर विवाहित थे। उनकी पत्नी का नाम ‘लोई’ था। वह आजीवन उनके हर कार्य में उनके साथ रहीं। जीवन का एक भी दिन उनने ऐसा न जाने दिया, जिसमें भ्रांतियों के निवारण और सत्परंपराओं के प्रतिपादन में प्राणपण से प्रयत्न न किया हो। विरोधियों में से कोई उन्हें तनिक भी न झुका सका।
मरते समय उनकी लाश को हिंदू जलाना चाहते थे, मुसलमान दफनाना। इसी बात को लेकर विग्रह खड़ा हो गया। चमत्कार यह हुआ कि कफन के नीचे से लाश गायब हो गई। उसके स्थान पर फूल पड़े मिले। इनमें से आधों को मुसलमानों ने दफनाया और आधों को हिंदूओं ने जलाया। दोनों ही संप्रदाय वालों ने उनकी स्मृति में भव्य भवन बनाए। कबीर पंथ को मानने वाले लाखों व्यक्ति हिंदूस्तान में हैं।
दूसरे समर्थ रामदास महाराष्ट्र के उच्चस्तरीय संत थे। उन्होंने शिवाजी को स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार किया; भवानी से अक्षय पराक्रम वाली तलवार दिलवाई; गाँव-गाँव घूमकर 700 महावीर मंदिर बनवाए, जिनमें हनुमान जी की प्रतिमा तो थी ही, साथ ही व्यायामशाला और सत्संग-प्रक्रिया भी नियमित रूप से चलती थी। इन देवालयों के माध्यम से शिवाजी को सैनिक, शस्त्र और धन मिलता था, ताकि स्वतंत्रता-संग्राम सफलतापूर्वक चलता रहे। शिवाजी ने राज्य की स्थापना की। उसकी गद्दी पर गुरु के खड़ाऊँ स्थापित किए और स्वयं प्रबंधक मात्र रहे। शिवाजी द्वारा छेड़ा गया आंदोलन बढ़ता ही गया और अंत में गांधी जी के नेतृत्व में भारत स्वतंत्र होकर रहा।
तीसरे रामकृष्ण परमहंस कलकत्ता के पास एक देहात में जन्मे थे। वे कलकत्ता के दक्षिणेश्वर मंदिर में पूजा करते थे। हजारों जिज्ञासु नित्य उनके पास आकर ज्ञानपिपासा तृप्त करते थे और उनके आशीर्वाद-अनुदानों से लाभ उठाते थे। उनकी धर्मपत्नी ‘शारदामणि’ थी।
उन्होंने नरेंद्र के रूप में सुपात्र पाया और संन्यास देकर विवेकानंद नाम दिया और देश-देशांतरों में भारतीय संस्कृति की गरिमा समझाने भेजा। देश में शिक्षित वर्ग ईसाई एवं नास्तिक बनता चला जा रहा था। विवेकानंद के प्रवचनों से लाखों के मस्तिष्क सुधरे। उनने संसार भर में रामकृष्ण परमहंस मिशन की स्थापनाएँ कीं, जो पीड़ा-निवारण की सेवा करता है। विवेकानंद स्मारक कन्याकुमारी पर, जहाँ उन्हें नवजागृति का संदेश गुरु से मिला था, बना है एवं देखने ही योग्य है।
यह एक आत्मा के विभिन्न शरीरों का वर्णन है। इसके अतिरिक्त अन्यान्य आत्माओं में प्रेरणाएँ भरकर उस दैवी सत्ता ने समय-समय पर उनसे बड़े-बड़े काम कराए। चैतन्य महाप्रभु बंगाल के एवं बाबा जलाराम गुजरात के उन्हीं के संरक्षण में ऊँची स्थिति तक पहुँचे और देश को ऊँचा उठाने में— भगवद्भक्ति को उसके वास्तविक स्वरूप में जन-जन तक पहुँचाने में— उस अंधकारयुग में अभिनव सूर्योदय का काम किया।
यह तीन प्रधान जन्म थे, जिनकी हमें जानकारी दी गई। इनके बीच-बीच मध्यकालों में हमें और भी महत्त्वपूर्ण जन्म लेने पड़े हैं, पर वे इतने प्रख्यात नहीं हैं, जितने उपरोक्त तीन। हमें समग्र जीवन की रूपरेखा इन्हीं में दिखाई गई और बताया गया कि गुरुदेव इन जन्मों में हमें किस प्रकार अपनी सहायता पहुँचाते, ऊँचा उठाते और सफल बनाते रहे हैं।
अधिक जानने की अपनी इच्छा भी नहीं हुई। जब समझ लिया गया कि इतनी महान आत्मा स्वयं पहुँच-पहुँचकर सत्पात्र आत्माओं को ढूँढ़ती और उनके द्वारा बड़े काम कराती रही हैं, तो हमारे लिए इस जन्म में भी यही उचित है कि एक का पल्ला पकड़ें; एक नाव में बैठें और अपनी निष्ठा डगमगाने न दें। इन तीन महान जन्मों के माध्यम से जो समय बचा, उसे हमें कहाँ-कहाँ, किस रूप में, कैसे खरच करना पड़ा, यह पूछने का अर्थ उन पर अविश्वास व्यक्त करना था; अनेक गवाहियाँ माँगना था। हमारे संतोष के लिए यह तीन जन्म ही पर्याप्त थे।
महान कार्यों का बोझ— उत्तरदायित्व सँभालने वाले को समय-समय पर अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अनेक प्रकार के असाधारण पराक्रम दिखाने पड़ते हैं। यह हमारे साथ भी घटित होता रहा है। दौड़-दौड़कर गुरुदेव सहायता के लिए पहुँचते रहे हैं। हमारी नन्हीं-सी सामर्थ्य में अपनी महती सामर्थ्य मिलाते रहे हैं; संकटों से बचाते रहे हैं; लड़खड़ाते पैरों को सँभालते रहे हैं। इन तीन जन्मों की घटनाओं से ही पूरी तरह विश्वास हो गया। इसलिए उसी दिन निश्चय कर लिया कि अपना जीवन अब इन्हीं के चरणों पर समर्पित रहेगा। इन्हीं के संकेतों पर चलेगा।
इस जन्म में उन्होंने हमें धर्मपत्नी समेत पाया और कहा— ‘‘इस विषम समय में आध्यात्मिक जीवन धर्मपत्नी समेत अधिक अच्छी तरह बिताया जा सकता है। विशेषतया, जब तुम्हें आगे चलकर आश्रम बनाकर शिक्षा-व्यवस्था बनानी हो। ऋषि-व्यवस्था में माता द्वारा भोजन, निवास, स्नेह-दुलार आदि का प्रबंध और पिता द्वारा अनुशासन, अध्यापन, मार्गदर्शन का कार्य चलने में सुविधा रहती है।’’
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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