हमारी वसीयत और विरासत (भाग16)— मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश
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मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश:—
हमारा अनुभव यह रहा है कि जितनी उत्सुकता साधकों को सिद्धपुरुष खोजने की होती है, उससे असंख्यों गुनी उत्कंठा सिद्धपुरुषों को सुपात्र साधकों की तलाश करने के निमित्त होती है। साधक सत्पात्र चाहिए। जिसने अपना चिंतन, चरित्र और व्यवहार परिष्कृत कर लिया हो, वही सच्चा साधक है। उसे मार्गदर्शक खोजने नहीं पड़ते, वरन् वे दौड़कर स्वयं उनके पास आते और उँगली पकड़कर आगे चलने का रास्ता बताते हैं। जहाँ वे लड़खड़ाते हैं, वहाँ गोदी में उठाकर— कंधे पर बिठाकर पार लगाते हैं। हमारे संबंध में यही हुआ है। घर बैठे पधारकर अधिक सामर्थ्यवान बनाने के लिए 24 वर्ष का गायत्री पुरश्चरण उन्होंने कराया एवं उसकी पूर्णाहुति में सहस्रकुंडी गायत्री यज्ञ संपन्न कराया है। धर्मतंत्र से लोक-शिक्षण के लिए एक लाख अपरिचित व्यक्तियों को परिचित ही नहीं, घनिष्ठ बनाकर कंधे-से-कंधा— कदम-से-कदम मिलाकर चलने योग्य बना दिया।
अपने प्रथम दर्शन में ही चौबीस महापुरश्चरण पूरे होने एवं चार बार एक-एक वर्ष के लिए हिमालय बुलाने की बात गुरुदेव ने कही।
हमें हिमालय पर बार-बार बुलाए जाने के कई कारण थे। एक, यह जानना कि सुनसान प्रकृति के सान्निध्य में— प्राणियों एवं सुविधाओं के अभाव में— आत्मा को एकाकीपन कहीं अखरता तो नहीं? दूसरे, यह कि इस क्षेत्र में रहने वाले हिंस्र पशुओं के साथ मित्रता बना सकने लायक आत्मीयता विकसित हुई या नहीं? तीसरे, वह समूचा क्षेत्र देवात्मा है। उसमें ऋषियों ने मानवी काया में रहते हुए देवत्व उभारा और देवमानव के रूप में ऐसी भूमिकाएँ निभाईं, जो साधन और सहयोग के अभाव में साधारणजनों के लिए कर सकना संभव नहीं थीं। उनसे हमारा प्रत्यक्षीकरण कराया जाना था।
उनका मूक निर्देश था कि अगले दिनों उपलब्ध आत्मबल का उपयोग हमें ऐसे ही प्रयोजन के लिए एक साथ करना है, जो ऋषियों ने समय-समय पर तात्कालिक समस्याओं के समाधान के निमित्त अपने प्रबल पुरुषार्थ से संपन्न किया है। यह समय ऐसा है, जिसमें अगणित अभावों की एक साथ पूर्ति करनी है; साथ ही एक साथ चढ़ दौड़ी अनेकानेक विपत्तियों से जूझना है। यह दोनों ही कार्य इसी उत्तराखंड, कुरुक्षेत्र में पिछले दिनों संपन्न हुए हैं। पुरातन देवताओं-ऋषियों में से कुछ आंशिक रूप से सफल हुए हैं; कुछ असफल भी रहे हैं। इस बार एकाकी वे सब प्रयत्न करने और समय की माँग को पूरा करना है। इसके लिए जो मोर्चेबंदी करनी है, उसकी झलक-झाँकी समय रहते कर ली जाए, ताकि कंधों पर आने वाले उत्तरदायित्वों की पूर्व जानकारी रहे और पूर्वज किस प्रकार दाँव-पेंच अपनाकर विजयश्री को वरण करते रहे हैं, इस अनुभव से कुछ-न-कुछ सरलता मिले। यह तीनों ही प्रयोजन समझने, अपनाने और परीक्षा में उत्तीर्ण होने के निमित्त ही हमारी भावी हिमालययात्राएँ होनी हैं, ऐसा उनका निर्देश था। आगे उन्होंने बताया— ‘‘हम लोगों की तरह तुम्हें भी सूक्ष्मशरीर के माध्यम से अतिमहत्त्वपूर्ण कार्य करने होंगे। इसका पूर्वाभ्यास करने के लिए यह सीखना होगा कि स्थूलशरीर से हिमालय के किस भाग में— कितने समय तक— किस प्रकार ठहरा जा सकता है और निर्धारित उद्देश्य की पूर्ति में संलग्न रहा जा सकता है।’’
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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