हमारी वसीयत और विरासत (भाग 21)— दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह
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दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:—
अपना मुँह एक— सामने वाले के सौ। किस-किस को, कहाँ तक जवाब दिया जाए? अंत में हारकर गांधी जी के तीन गुरुओं में से एक को अपना भी गुरु बना लिया। मौन रहने से राहत मिली। ‘भगवान की प्रेरणा’ कह देने से थोड़ा काम चल पाता; क्योंकि उसे काटने के लिए उन सबके पास बहुत पैने तर्क नहीं थे। नास्तिकवाद तक उतर आने या अंतःप्रेरणा का खंडन करने लायक तर्क उनमें से किसी ने भी नहीं सीखे-समझे थे। इसलिए बात ठंडी पड़ गई। मैंने अपना संकल्पित व्रत इस प्रकार चालू कर दिया, मानो किसी को जवाब देना ही नहीं था; किसी का परामर्श लेना ही नहीं था। अब सोचता हूँ कि उतनी दृढ़ता न अपनाई गई होती, तो नाव दो-चार झकझोरे खाने के उपरांत ही डूब जाती। जिस साधनाबल के सहारे आज अपना और दूसरों का कुछ भला बन पड़ा, उसका सुयोग ही नहीं आता। ईश्वर के साथ वह नाता जुड़ता ही नहीं, जो पवित्रता और प्रखरता से कम में जड़ें जमाने की स्थिति में होता ही नहीं।
इसके बाद दूसरी परीक्षा बचपन में ही तब सामने आई, जब कांग्रेस का असहयोग आंदोलन प्रारंभ हुआ। गांधी जी ने सत्याग्रह आंदोलन का बिगुल बजाया। देशभक्तों का आह्वान किया और जेल जाने— गोली खाने के लिए घर से निकल पड़ने के लिए कहा।
मैंने अंतरात्मा की पुकार सुनी और समझा कि यह ऐतिहासिक अवसर है। इसे किसी भी कारण चुकाया नहीं जाना चाहिए। मुझे सत्याग्रहियों की सेना में भरती होना ही चाहिए। अपनी मरजी से उस क्षेत्र के भरती-केंद्र में नाम लिखा दिया। साधनसंपन्न घर छोड़कर नमक सत्याग्रह के लिए निर्धारित मोर्चे पर जाना था। उन दिनों गोली चलने की चर्चा बहुत जोरों पर थी। लंबी सजाएँ— काला पानी होने की भी। ऐसी अफवाहें सरकारी पक्ष के— किराए के प्रचारक जोरों से फैला रहे थे, ताकि कोई सत्याग्रही बने नहीं। घरवाले उसकी पूरी-पूरी रोक-थाम करें। मेरे संबंध में भी यही हुआ। समाचार विदित होने पर मित्र, पड़ोसी, कुटुंबी, संबंधी एक भी न बचा, जो इस विपत्ति से बचाने के लिए जोर लगाने के लिए न आया हो। उनकी दृष्टि से यह आत्महत्या जैसा प्रयास था।
बात बढ़ते-बढ़ते जवाबी आक्रमण तक की आई। किसी ने अनशन की धमकी दी, तो किसी ने आत्महत्या की। हमारी माता जी अभिभावक थीं। उन्हें यह पट्टी पढ़ाई गई कि लाखों की पैतृक संपत्ति से वे मेरा नाम खारिज कराकर अन्य भाइयों के नाम कर देंगी। भाइयों ने कहा— “घर से कोई रिश्ता न रहेगा और उसमें प्रवेश भी न मिलेगा।” इसके अतिरिक्त भी और कई प्रकार की धमकियाँ दीं। उठाकर ले जाया जाएगा और डाकुओं के नियंत्रण में रहने के लिए बाधित कर दिया जाएगा।
इन मीठी-कड़ुवी धमकियों को मैं शांतिपूर्वक सुनता रहा। अंतरात्मा के सामने एक ही प्रश्न रहा कि समय की पुकार बड़ी है या परिवार का दबाव? अंतरात्मा की प्रेरणा बड़ी है या मन को इधर-उधर डुलाने वाले असमंजस की स्थिति? अंतिम निर्णय किससे कराता? आत्मा और परमात्मा दो को ही साक्षी बनाकर और उनके निर्णय को ही अंतिम मानने का फैसला किया।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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