हमारी वसीयत और विरासत (भाग 23)

दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:—
स्वतंत्रता-संग्राम की कई बार जेलयात्रा— 24 महापुरश्चरणों का व्रत धारण— इसके साथ ही मेहतरानी की सेवा-साधना, यह तीन परीक्षाएँ मुझे छोटी उम्र में ही पास करनी पड़ीं। आंतरिक दुर्बलताएँ और संबद्ध परिजनों के दुहरे मोर्चे पर एक साथ लड़ा। उस आत्मविजय का ही परिणाम है कि आत्मबल-संग्रह में अधिक लाभ से लाभान्वित होने का अवसर मिला। उन घटनाक्रमों से हमारा आपा बलिष्ठ होता चला गया एवं वे सभी कार्यक्रम हमारे द्वारा बखूबी निभते चले गए, जिनका हमें संकल्प दिलाया गया था।
महापुरश्चरणों की शृंखला नियमित रूप से चलती रही। जिस दिन गुरुदेव के आदेश से उस साधना का शुभारंभ किया था, उसी दिन घृतदीप की अखण्ड ज्योति भी स्थापित की। उसकी जिम्मेदारी हमारी धर्मपत्नी ने सँभाली, जिन्हें हम भी माता जी के नाम से पुकारते हैं। छोटे बच्चे की तरह उस पर हर घड़ी ध्यान रखे जाने की आवश्यकता पड़ती थी; अन्यथा, वह बच्चे की तरह मचल सकता था; बुझ सकता था। वह अखंड दीपक इतने लंबे समय से बिना किसी व्यवधान के अब तक नियमित जलता रहा है। इसके प्रकाश में बैठकर जब भी साधना करते हैं, तो मनःक्षेत्र में अनायास ही दिव्य भावनाएँ उठती रहती हैं। कभी किसी उलझन को सुलझाना अपनी सामान्य बुद्धि के लिए संभव नहीं होता, तो इस अखंड ज्योति की प्रकाश-किरणें अनायास ही उस उलझन को सुलझा देती हैं।
नित्य 66 माला का जप; गायत्री माता के चित्र-प्रतीक का धूप, नैवेद्य, अक्षत, पुष्प, जल से पूजन; जप के साथ-साथ प्रातःकाल के उदीयमान सविता देवता का ध्यान; अंत में सूर्यार्घ्यदान। इतनी छोटी-सी विधि-व्यवस्था अपनाई गई। उसके साथ बीजमंत्र का संपुट आदि का कोई तांत्रिक विधि-विधान जोड़ा नहीं गया, किंतु श्रद्धा अटूट रही। सामने विद्यमान गायत्री माता के चित्र के प्रति असीम श्रद्धा उमड़ती रही। लगता रहा कि वे साक्षात् सामने बैठी हैं। कभी-कभी उनके आँचल में मुँह छिपाकर प्रेमाश्रु बहाने के लिए मन उमड़ता। कभी ऐसा नहीं हुआ कि मन न लगा हो; कहीं अन्यत्र भागा हो। तन्मयता निरंतर प्रगाढ़ स्तर की बनी रही। समय पूरा हो जाता, तो अलग अलार्म बजता; अन्यथा, उठने को जी ही नहीं करता था। उपासनाक्रम में कभी एक दिन भी विघ्न न आया।
यही बात अध्ययन के संबंध में रही। उसके लिए अतिरिक्त समय न निकालना पड़ा। कांग्रेस-कार्यों के लिए प्रायः काफी-काफी दूर चलना पड़ता। जब परामर्श या कार्यक्रम का समय आता, तब पढ़ना बंद हो जाता। जहाँ चलना आरंभ हुआ, वहीं पढ़ना भी आरंभ हो गया। पुस्तक साइज के चालीस पन्ने प्रतिघंटे पढ़ने की स्पीड रही। कम-से-कम दो घंटे नित्य पढ़ने के लिए मिल जाते। कभी-कभी ज्यादा भी। इस प्रकार दो घंटे में 80 पृष्ठ। महीने में 2400 पृष्ठ। साल भर में लगभग 29000 पृष्ठ। साठ वर्ष की कुल अवधि में लगभग साढ़े सत्रह लाख पृष्ठ हमने मात्र अपनी अभिरुचि के पढ़े हैं। लगभग 3 हजार पृष्ठ नित्य विहंगम रूप से पढ़ लेने की बात भी हमारे लिए स्नान-भोजन की तरह आसान व सहज रही है। यह क्रम प्रायः 60 वर्ष से अधिक समय से चलता आ रहा है और इतने दिन में अनगिनत पृष्ठ उन पुस्तकों के पढ़ डाले, जो हमारे लिए आवश्यक विषयों से संबंधित थे। महापुरश्चरणों की समाप्ति के बाद समय अधिक मिलने लगा। तब हमने भारत के विभिन्न पुस्तकालयों में जाकर ग्रंथों— पांडुलिपियों का अध्ययन किया। वह हमारे लिए अमूल्य निधि बन गई।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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