हमारी वसीयत और विरासत (भाग 26)— दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह

दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:—
"इस दृष्टि से एवं भावी क्रियापद्धति के सूत्रों को समझने के लिए तुम्हारा स्वतंत्रता-संग्राम अनुष्ठान भी जरूरी है।”
देश के लिए हमने क्या किया; कितने कष्ट सहे; सौंपे गए कार्यों को कितनी खूबी से निभाया, इसकी चर्चा यहाँ करना सर्वथा अप्रासंगिक होगा। उसे जानने की आवश्यकता प्रतीत होती हो, तो परिजन-पाठक उत्तरप्रदेश सरकार के सूचना विभाग द्वारा प्रकाशित ‘आगरा संभाग के स्वतंत्रता-संग्राम सेनानी’ पुस्तक पढ़ें। उसमें अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों के साथ हमारा उल्लेख हुआ है। ‘श्रीराम मत्त’ हमारा उन दिनों का प्रचलित नाम है। यहाँ तो केवल यह ध्यान में रखना है कि हमारे हित में मार्गदर्शक ने किस हित का ख्याल मन में रखकर यह आदेश दिया।
इन दस वर्षों में जेलों में तथा जेल से बाहर अनेक प्रकृति के लोगों से मिलना हुआ। स्वतंत्रता-संग्राम के समय में जनजागृति चरम सीमा पर थी। शूरवीर, साहस के धनी, संकल्पबल वाले अनेकों ऐसे व्यक्ति संपर्क में आए, जिनसे हमने कुछ सीखा। जनसमुदाय को लाभान्वित करने और नैतिक क्रांति जैसे बड़े कार्य के लिए अपना प्रशंसक, समर्थक, सहयोगी बनाने हेतु किन रीति-नीतियों को अपनाना चाहिए, यह हमें मात्र दो वर्षों में ही सीखने को मिल गया। इसके लिए वैसे पूरी जिंदगी गुजार देने पर यह सुयोग उपलब्ध न होता। विचित्र प्रकार की विचित्र प्रकृतियों को अध्ययन करने का इतना अवसर मिला, जितना देश के अधिकांश भाग का परिभ्रमण करने पर मिल पाता। हमारे मन में घर-गृहस्थी— अपने-पराए का मोह छूट गया और उन विपन्न परिस्थितियों में भी इतनी प्रसन्नतापूर्वक जीवन जिया कि अपने आपे की मजबूती पर विश्वास होता चला। सबसे बड़ी बात यह कि हमारा स्वभाव स्वयंसेवक की तरह ढलता चला गया, जो अभी भी हमें इस चरमावस्था में पहुँचने पर भी विनम्र बनाए हुए है। हमारे असमंजस का समाधान उन दिनों गुजारे स्वतंत्रता-संग्राम के प्रसंगों से हो गया कि क्यों हमसे अनुष्ठान दो भागों में कराया गया।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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