हमारी वसीयत और विरासत (भाग 32)— गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा

गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा:—
उनसे तो हमें चट्टियों पर दुकान लगाए हुए पहाड़ी दुकानदार अच्छे लगे। वे भोले और भले थे। आटा, दाल, चावल आदि खरीदने पर वे पकाने के बरतन बिना किराया लिए— बिना गिने ऐसे ही उठा देते थे; माँगने-जाँचने का कोई धंधा उनका नहीं था। अक्सर चाय बेचते थे। बीड़ी, माचिस, चना, गुड़, सत्तू, आलू जैसी चीजें यात्रियों को उनसे मिल जाती थीं। यात्री श्रद्धालु तो होते थे, पर गरीब स्तर के थे। उनके काम की चीजें ही दुकानों पर बिकती थीं। कंबल उसी क्षेत्र के बने हुए किराए पर रात काटने के लिए मिल जाते थे।
शीत ऋतु और पैदल चलना, यह दोनों ही परीक्षाएँ कठिन थीं। फिर उस क्षेत्र में रहने वाले साधु-संन्यासी उन दिनों गरम इलाकों में गुजारे की व्यवस्था करने नीचे उतर आते हैं। जहाँ ठंड अधिक है, वहाँ के ग्रामवासी भी पशु चराने नीचे के इलाकों में उतर आते हैं। गाँवों में— झोपड़ियों में सन्नाटा रहता है। ऐसी कठिन परिस्थितियों में हमें उत्तरकाशी से नंदनवन तक की यात्रा पैदल चलकर पूरी करनी थी। हर दृष्टि से यह यात्रा बहुत कठिन थी।
स्थान नितांत एकाकी; ठहरने-खाने की कोई व्यवस्था नहीं; वन्य पशुओं का निर्भीक विचरण, यह सभी बातें काफी कष्टकर थीं। हवा उन दिनों काफी ठंडी चलती थी। सूर्य ऊँचे पहाड़ों की छाया में छिपा रहने के कारण दस बजे के करीब दीखता है और दो बजे के करीब शिखरों के नीचे चला जाता है। शिखरों पर तो धूप दीखती है, पर जमीन पर मध्यम स्तर का अँधेरा। रास्ते में कभी ही कोई भूला-भटका आदमी मिलता। जिन्हें कोई अति आवश्यक काम होता; किसी की मृत्यु हो जाती, तो ही आने-जाने की आवश्यकता पड़ती। हर दृष्टि से वह क्षेत्र अपने लिए सुनसान था। सहचर के नाम पर थे, छाती में धड़कने वाला दिल या सोच-विचार उठाने वाले सिर में अवस्थित मन। ऐसी दशा में लंबी यात्रा संभव है या असंभव, यह परीक्षा अपनी ली जा रही थी। हृदय ने निश्चय किया कि जितनी साँस चलनी है, उतने दिन अवश्य चलेगी; तब तक कोई मारने वाला नहीं। मस्तिष्क कहता, वृक्ष-वनस्पतियों में भी तो जीवन है। उन पर पक्षी रहते हैं। पानी में जलचर मौजूद हैं। जंगल में वन्य पशु फिरते हैं। सभी नंगे बदन, सभी एकाकी। जब इतने सारे प्राणी इस क्षेत्र में निवास करते हैं, तो तुम्हारे लिए सब कुछ सुनसान कैसा? अपने को छोटा मत बनाओ। जब ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की बात मानते हो, तब इतने सारे प्राणियों के रहते, तुम अकेले कैसे? मनुष्यों को ही क्यों प्राणी मानते हो? यह जीव-जंतु क्या तुम्हारे अपने नहीं? फिर सूनापन कैसा?
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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