हमारी वसीयत और विरासत (भाग 35)— गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा

गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा:—
किंतु यहाँ भी विवेक समेटना पड़ा; साहस सँजोना पड़ा। मौत बड़ी होती है, पर जीवन से बड़ी नहीं। अभय और मैत्री भीतर हो, तो हिंसकों की हिंसा भी ठंडी पड़ जाती है और अपना स्वभाव बदल जाती है। पूरी यात्रा में प्रायः तीन-चार सौ की संख्या में ऐसे डरावने मुकाबले हुए, पर गड़बड़ाने वाले साहस को हर बार सँभालना पड़ा। मैत्री और निश्चिंतता की मुद्रा बनानी पड़ी। मृत्यु के संबंध में सोचना पड़ा कि उसका भी एक समय होता है। यदि यहीं— इसी प्रकार जीवन की इतिश्री होनी है, तो फिर उसका डरते हुए क्यों; हँसते हुए ही सामना क्यों न किया जाए? यह विचार उठे तो नहीं, पर बलपूर्वक उठाने पड़े। पूरा रास्ता डरावना था। एकाकीपन— अँधेरे और मृत्यु के दूत मिल-जुलकर डराने का प्रयत्न करते रहे और वापस लौट चलने की सलाह देते रहे, पर संकल्पशक्ति साथ देती रही और यात्रा आगे बढ़ती रही।
परीक्षा का एक प्रश्नपत्र यह था कि सुनसान का— अकेलेपन का डर लगता है क्या? कुछ ही दिनों में दिल मजबूत हो गया और उस क्षेत्र में रहने वाले प्राणी अपने लगने लगे। डर न जाने कहाँ चला गया। सूनापन सुहाने लगा। मन ने कहा— “प्रथम प्रश्नपत्र में उत्तीर्ण होने का सिलसिला चल पड़ा। आगे बढ़ने पर असमंजस होता है, वह भी अब न रहेगा।”
दूसरा प्रश्नपत्र था, शीत ऋतु का। सोचा कि जब मुँह, नाक, आँखें, सिर, कान, हाथ खुले रहते हैं; अभ्यास से इन्हें शीत नहीं लगता, तो तुम्हें भी क्यों लगना चाहिए। उत्तरी ध्रुव, नार्वे, फिनलैंड में हमेशा शून्य से नीचे तापमान रहता है। वहाँ एस्किमो तथा दूसरी जाति के लोग रहते हैं, तो इधर तो दस-बारह हजार फुट की ही ऊँचाई है। यहाँ ठंड से बचने के उपाय ढूँढ़े जा सकते हैं। वे उधर के एक निवासी से मालूम भी हो गए। पहाड़ ऊपर ठंडे रहते हैं, पर उनमें जो गुफाएँ पाई जाती हैं, वे अपेक्षाकृत गरम होती हैं। कुछ खास किस्म की झाड़ियाँ ऐसी होती हैं, जो हरी होने पर भी जल जाती हैं। लांगड़ा, मार्चा आदि शाकों की पत्तियाँ जंगलों में उगी होती हैं। वे कच्ची खाई जा सकती हैं। भोजपत्र के तने पर उठी हुई गाँठों को उबाल लिया जाए, तो ऐसी चाय बन जाती है, जिनसे ठंडक दूर हो सके। पेट में घुटने और सिर लगाकर उकडूँ बैठ जाने पर भी ठंडक कम लगती है। मानने पर ठंड अधिक लगती है। बच्चे थोड़े-से कपड़ों में कहीं भी भागे-भागे फिरते है। उन्हें कोई हैरानी नहीं होती। ठंड मानने भर की है। उसमें अनभ्यस्त बूढ़े-बीमारों की तो नहीं कहते; अन्यथा, जवान आदमी ठंडक से नहीं मर सकता। बात यह भी समझ में आ गई और इन सब उपायों को अपना लेने पर ठंडक भी सहन होने लगी। फिर एक और बात है कि ठंडक-ठंडक रटने की अपेक्षा मन में कोई और उत्साह भरा चिंतन बिठा लिया जाए, तो भी काम चल जाता है। इतनी महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं से उस क्षेत्र की समस्याओं का सामना करने के हल निकल आए।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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