हमारी वसीयत और विरासत (भाग 37)— गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा

गंगोत्री तक राहगीरों का बना हुआ भयंकर रास्ता है। गोमुख तक के लिए उन दिनों एक पगडंडी थी। इसके बाद कठिनाई थी। तपोवन काफी ऊँचाई पर है। रास्ता भी नहीं है। अंतःप्रेरणा या भाग्य भरोसे चलना पड़ता है। तपोवन पठार चौरस है। फिर पहाड़ियों की एक ऊँची शृंखला है। इसके बाद नंदनवन आता है। हमें यहीं बुलाया गया था। समय पर पहुँच गए। देखा तो गुरुदेव खड़े थे। प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। हमारी का भी— और उनका भी। वे पहली बार हमारे घर गए थे। इस बार हम उनके यहाँ आए। यह सिलसिला जीवन भर चलता रहे, तो ही इस बँधे सूत्र की सार्थकता है।
तीन परीक्षाएँ इस बार होनी थीं— 1. बिना साथी के काम चलाना, 2. ऋतुओं के प्रकोप की तितिक्षा सहना, 3. हिंस्र पशुओं के साथ रहते हुए विचलित न होना। तीनों में ही अपने को उत्तीर्ण समझा और परीक्षक ने वैसा ही माना।
बात-चीत का सिलसिला तो थोड़े ही समय में पूरा हो गया। ‘‘अध्यात्मशक्ति प्राप्त करने के लिए प्रचंड मनोबल संपादित करना— प्रतिकूलताओं को दबोचकर अनुकूलता में ढाल देना— सिंह-व्याघ्र तो क्या, मौत से भी न डरना, ऋषिकल्प आत्माओं के लिए तो यह स्थिति नितांत आवश्यक है। तुम्हें ऐसी ही परिस्थितियों के बीच अपने जीवन का बहुत-सा भाग गुजारना है।’’
उस समय की बात समाप्त हो गई। जिस गुफा में उनका निवास था, वहाँ तक ले गए। इशारे में बताए हुए स्थान पर सोने का उपक्रम किया, तो वैसा ही किया। इतनी गहरी नींद आई कि नियतक्रम की अपेक्षा दूना-तीन गुना समय लग गया हो, तो कोई आश्चर्य नहीं। रास्ते की सारी थकान इस प्रकार दूर हो गई, मानो कहीं चलना ही नहीं पड़ा था।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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