हमारी वसीयत और विरासत (भाग 40)— ऋषि तंत्र से दुर्गम हिमालय में साक्षात्कार

नंदनवन में पहला दिन वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य को निहारने; उसी में परम सत्ता की झाँकी देखने में निकल गया। पता ही नहीं चला कि कब सूरज ढला और रात्रि आ पहुँची। परोक्ष रूप से निर्देश मिला— समीपस्थ एक निर्धारित गुफा में जाकर सोने की व्यवस्था बनाने का। लग रहा था कि प्रयोजन सोने का नहीं, सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने का है, ताकि स्थूलशरीर पर शीत का प्रकोप न हो सके। संभावना थी कि पुनः रात्रि को गुरुदेव के दर्शन होंगे। ऐसा हुआ भी।
उस रात्रि को गुफा में गुरुदेव सहसा आ पहुँचे। पूर्णिमा थी। चंद्रमा का सुनहरा प्रकाश समूचे हिमालय पर फैल रहा था। उस दिन ऐसा लगा कि हिमालय सोने का है। दूर-दूर बरफ के टुकड़े तथा बिंदु बरस रहे थे। वे ऐसा अनुभव कराते थे, मानो सोना बरस रहा है। मार्गदर्शक के आ जाने से गरमी का एक घेरा चारों ओर बन गया; अन्यथा, रात्रि के समय इस विकट ठंड और हवा के झोंकों में साधारणतया निकलना संभव न होता। दुस्साहस करने पर इस वातावरण में शरीर जकड़ या ऐंठ सकता था।
किसी विशेष प्रयोजन के लिए ही यह अहैतुकी कृपा हुई है, यह मैंने पहले ही समझ लिया, इसलिए इस काल में आने का कारण पूछने की आवश्यकता ही न पड़ी। पीछे-पीछे चल दिया। पैर जमीन से ऊपर उठते हुए चल रहे थे। आज यह जाना कि सिद्धियों में से ऊपर हवा में उड़ने की— अंतरिक्ष में चलने की क्यों आवश्यकता पड़ती है। उन बरफीले ऊबड़-खाबड़ हिमखंडों पर चलना उससे कहीं अधिक कठिन था, जितना कि पानी की सतह पर चलना। आज उन सिद्धियों की अच्छी परिस्थितियों में आवश्यकता भले ही न पड़े, पर उन दिनों हिमालय जैसे विकट क्षेत्रों में आवागमन की कठिनाई को समझने वालों के लिए आवश्यकता निश्चय ही पड़ती होगी।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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