हमारी वसीयत और विरासत (भाग 43)— भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण

नंदनवन प्रवास का अगला दिन और भी विस्मयकारी था। पूर्वरात्रि में गुरुदेव के साथ ऋषिगणों के साक्षात्कार के दृश्य फिल्म की तरह आँखों के समक्ष घूम रहे थे। पुनः गुरुदेव की प्रतीक्षा थी— भावी निर्देशों के लिए। धूप जैसे ही नंदनवन के मखमली कालीन पर फैलने लगी, ऐसा लगा जैसे स्वर्ग धरती पर उतर आया हो। भाँति-भाँति के रंगीन फूल ठसाठस थे और चौरस पठार पर बिखरे हुए थे। दूर से देखने पर लगता था, मानो एक गलीचा बिछा हो।
सहसा गुरुदेव का स्थूलशरीर रूप में आगमन हुआ। उन्होंने आवश्यकतानुसार पूर्वरात्रि के प्रतिकूल अब वैसा ही स्थूलशरीर बना लिया था, जैसा कि प्रथम बार प्रकाश-पुंज के रूप में पूजाघर में अवतरित होकर हमें दर्शन दिया था।
वार्त्तालाप को आरंभ करते हुए उन्होंने कहा— ‘‘हमें तुम्हारे पिछले सभी जन्मों की श्रद्धा और साहसिकता का पता था। अब की बार यहाँ बुलाकर तीन परीक्षाएँ लीं और जाँचा कि बड़े कामों का वजन उठाने लायक मनोभूमि तुम्हारी बनी या नहीं। इस पूरी यात्रा में तुम्हारे साथ रहे हैं और घटनाक्रम तथा उसके साथ उठती प्रतिक्रिया को देखते रहे हैं। और भी अधिक निश्चिंतता हो गई। यदि स्थिति सुदृढ़ और विश्वस्त न रही होती, तो इस क्षेत्र के निवासी सूक्ष्मशरीरधारी ऋषिगण तुम्हारे समक्ष प्रकट न होते और मन की व्यथा न कहते। उनके कथन का प्रयोजन यही था कि जो काम छूटा हुआ है, उसे पूरा किया जाए। समर्थ देखकर ही उनने अपने मनोभाव प्रकट किए; अन्यथा, दीन, दुर्बल, असमर्थों के सामने इतने बड़े लोग अपना मन खोलते ही कहाँ हैं?”
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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