हमारी वसीयत और विरासत (भाग 45)— भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण

यह तुम्हारे कार्यक्रम का प्रथम चरण है। अपना कर्त्तव्यपालन करते रहना। यह मत सोचना कि हमारी शक्ति नगण्य है। तुम्हारी कम सही, पर जब हम दो मिल जाते हैं, तब एक-और-एक मिलकर ग्यारह होते हैं और फिर यह तो दैवी सत्ता द्वारा संचालित कार्यक्रम है। इसमें संदेह कैसा? समय आने पर सारी विधि-व्यवस्था सामने आती जाएगी। अभी से योजना बनाने और चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। अध्ययन जारी रखो। पुरश्चरण भी करते रहो। स्वतंत्रता सैनिक का काम करो। अधिक आगे की बात सोचने में व्यर्थ में मन में उद्विग्नता बढ़ेगी। अभी अपनी मातृभूमि में रहो और वहीं से प्रथम चरण के यह तीनों काम करो।”
“आगे की बात संकेत रूप में कहे देते हैं। साहित्य-प्रकाशन द्वारा स्वाध्याय का और विशाल धर्मसंगठन द्वारा सत्संग का— यह दो कार्य मथुरा रहकर करना पड़ेगा। पुरश्चरण की पूर्णाहुति भी वहीं होगी। प्रेस-प्रकाशन भी वहीं से चलेगा। मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की प्रक्रिया सुनियोजित ढंग से वहीं से चलेगी। वह प्रयास एक ऐतिहासिक आंदोलन होगा, जैसा कि अब तक कहीं भी नहीं हुआ।”
“तीसरा चरण इन सूक्ष्मशरीरधारी ऋषियों की इच्छा पूरी करने का है। ऋषिपरंपरा का बीजारोपण तुम्हें करना है। इसका विश्वव्यापी विस्तार अपने ढंग से होता रहेगा। यह कार्य सप्तऋषियों की तपोभूमि सप्तसरोवर हरिद्वार में रहते हुए करना पड़ेगा। तीनों कार्य तीनों जगह उपयुक्त ढंग से चलते रहेंगे।”
“अभी संकेत किया है। आगे चलकर समयानुसार इन कार्यों की विस्तृत रूपरेखा हम यहाँ बुलाकर बताते रहेंगे। तीन बार बुलाने के तीन प्रयोजन होंगे।”
“चौथी बार तुम्हें भी चौथी भूमिका में जाना है और हमारे प्रयोजन का बोझ इस सदी के अंतिम दशकों में अपने कंधों पर लेना है। तब सारे विश्व में उलझी हुई विषम समस्याओं के अत्यंत कठिन और अत्यंत व्यापक कार्य अपने कंधे पर लेने होंगे। पूर्वघोषणा करने से कुछ लाभ नहीं। समयानुसार जो आवश्यक होगा, सो विदित भी होता चलेगा और संपन्न भी।”
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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