हमारी वसीयत और विरासत (भाग 46)— भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण

इस बार की हमारी हिमालययात्रा में मन में वह असमंजस बना हुआ था कि हिमालय की गुफाओं में सिद्धपुरुष रहने और उनके दर्शन मात्र से विभूतियाँ मिलने की जनश्रुतियाँ प्रचलित हैं। हमें उनका कोई आधार नहीं मिला। वह बात ऐसे ही किंवदंती मालूम पड़ती है। था तो मन का भीतरी असमंजस, पर गुरुदेव ने उसे बिना कहे ही समझ लिया और कंधे पर हाथ रखकर पूछा— ‘‘तुझे क्या जरूरत पड़ गई सिद्धपुरुषों की? ऋषियों के सूक्ष्मशरीरों के दर्शन एवं हमसे मन नहीं भरा।’’
अपने मन में अविश्वास जैसी बात— कोई दूसरा खोजने जैसी बात— स्वप्न में भी नहीं उठी थी। मात्र बाल-कौतूहल मन में था। गुरुदेव ने इसे अविश्वास मान लिया होगा, तो श्रद्धा-क्षेत्र में हमारी कुपात्रता मानेंगे। यह विचार मन में आते ही स्तब्ध रह गया।
मन को पढ़ लेने वाले देवात्मा ने हँसते हुए कहा— “वे हैं तो सही, पर दो बातें नई हो गई हैं। एक तो सड़कों की— वाहनों की सुविधा होने से यात्री अधिक आने लगे हैं। इससे उनकी साधना में विघ्न पड़ता है। दूसरे यह कि अन्यत्र जाने पर शरीर निर्वाह में असुविधा होती है। इसलिए उनने स्थूलशरीरों का परित्याग कर दिया है और सूक्ष्मशरीर धारण करके रहते हैं। जो किसी को दृष्टिगोचर भी न हो और उनके लिए निर्वाह साधनों की आवश्यकता भी न पड़े। इस कारण उन सभी ने शरीर ही नहीं, स्थान भी बदल लिए हैं। स्थान ही नहीं, साधना के साथ जुड़े कार्यक्रम भी बदल लिए हैं। जब सब कुछ परिवर्तन हो गया, तो दृष्टिगोचर कैसे हों? फिर सत्पात्र साधकों का अभाव हो जाने के कारण वे कुपात्रों को दर्शन देने या उन पर की हुई अनुकंपा में अपनी शक्ति गँवाना भी नहीं चाहते। ऐसी दशा में अन्य लोग जो तलाश करते हैं, वह मिलना संभव नहीं। किसी के लिए भी संभव नहीं। तुम्हें अगली बार पुनः हिमालय के सिद्धपुरुषों की दर्शन-झाँकी करा देंगे।”
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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