हमारी वसीयत और विरासत (भाग 47)— भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण
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परब्रह्म के अंशधर देवात्मा सूक्ष्मशरीर में किस प्रकार रहते हैं, इसका प्रथम परिचय हमने अपने मार्गदर्शक के रूप में घर पर ही प्राप्त कर लिया था। उनके हाथों में विधिवत् मेरी नाव सुपुर्द हो गई थी। फिर भी बालबुद्धि अपना काम कर रही थी। हिमालय में अनेक सिद्धपुरुषों के निवास की जो बात सुन रखी थी; उस कौतूहल को देखने का जो मन था, वह ऋषियों के दर्शन एवं मार्गदर्शक की सांत्वना से पूरा हो गया था। इस लालसा को पहले अपने अंदर ही मन के किसी कोने में छिपाए फिरते थे। आज उसके पूरे होने व आगे भी दर्शन होते रहने का आश्वासन मिल गया था। संतोष तो पहले भी कम न था, पर अब वह प्रसन्नता और प्रफुल्लता के रूप में और भी अधिक बढ़ गया।
गुरुदेव ने आगे कहा कि, ‘‘आगे हम जब भी बुलावें, तब समझना कि हमने 6 माह या एक वर्ष के लिए बुलाया है। तुम्हारा शरीर इस लायक बन गया है कि इधर की परिस्थितियों में निर्वाह कर सको। इस नए अभ्यास को परिपक्व करने के लिए इस निर्धारित अवधि में एक-एक करके तीन बार और इधर हिमालय में ही रहना चाहिए। तुम्हारे स्थूलशरीर के लिए जिन वस्तुओं की आवश्यकता समझेंगे, हम प्रबंध करवा दिया करेंगे। फिर इसकी आवश्यकता इसलिए भी है कि स्थूल से सूक्ष्म में और सूक्ष्म से कारणशरीर में प्रवेश करने के लिए जो तितिक्षा करनी पड़ती है, सो होती चलेगी। शरीर को क्षुधा, पिपासा, शीत, ग्रीष्म, निद्रा, थकान व्यथित करती हैं। इन छह को घर पर रहकर जीतना कठिन है; क्योंकि सारी सुविधाएँ वहाँ उपलब्ध रहने से यह प्रयोजन आसानी से पूरे होते हैं और तप-तितिक्षाओं के लिए अवसर ही नहीं मिलता। इसी प्रकार मन पर छाए रहने वाले छह कषाय-कल्मष भी किसी-न-किसी घटनाक्रम के साथ घटित होते रहते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर; इन छह रिपुओं से जूझने के लिए आरण्यकों में रहकर इनसे निपटने का अभ्यास करना पड़ता है। तुम्हें घर रहकर यह अवसर भी न मिल सकेगा। इसलिए अभ्यास के लिए जनसंकुल संस्थान से अलग रहने से उस आंतरिक मल्लयुद्ध में भी सरलता होती है। हिमालय में रहकर तुम शारीरिक तितिक्षा और मानसिक तपस्या करना। इस प्रकार तीन बार, तीन वर्ष यहाँ आते रहने और शेष वर्षों में जनसंपर्क में रहने से परीक्षा भी होती चलेगी कि जो अभ्यास हिमालय में रहकर किया था, वह परिपक्व हुआ या नहीं?’’
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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