हमारी वसीयत और विरासत (भाग 49)— भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण

गुरुदेव अदृश्य हो गए। हमें उनका दूत गोमुख तक पहुँचा गया। इसके बाद उनके बताए हुए स्थान पर वर्ष के शेष दिन पूरे किए।
समय पूरा होने पर हम वापस लौट पड़े। अब की बार इधर से लौटते हुए उन कठिनाइयों में से एक भी सामने नहीं आई, जो जाते समय पग-पग पर हैरान कर रही थीं। वे परीक्षाएँ थीं, सो पूरी हो जाने पर लौटते समय कठिनाइयों का सामना करना भी क्यों पड़ता?
हम एक वर्ष बाद घर वापस लौट आए। वजन 18 पौंड बढ़ गया। चेहरा लाल और गोल हो गया था। शरीरगत शक्ति काफी बढ़ी हुई थी। हर समय प्रसन्नता छाई रहती थी। लौटने पर लोगों ने गंगा जी का प्रसाद माँगा। सभी को गंगोत्री की रेती में से एक-एक चुटकी दे दी व गोमुख के जल का प्रसाद दे दिया। यही वहाँ से साथ लेकर भी लौटे थे। दीख सकने वाला प्रत्यक्ष प्रसाद यही एक ही था, जो दिया जा सकता था। वस्तुतः, यह हमारे जीवन का एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था। यद्यपि इसके बाद भी हिमालय जाने का क्रम बराबर बना रहा एवं गंतव्य भी वही है, फिर भी गुरुदेव के साथ विश्व-व्यवस्था का संचालन करने वाली परोक्ष ऋषिसत्ता का प्रथम दर्शन अंतःस्थल पर अमिट छाप छोड़ गया। हमें अपने लक्ष्य, भावी जीवनक्रम, जीवनयात्रा में सहयोगी बनने वाली जाग्रत प्राणवान आत्माओं का आभास भी इसी यात्रा में हुआ। हिमालय की हमारी पहली यात्रा अनेक ऐसे अनुभवों की कथागाथा है, जो अन्य अनेकों के लिए प्रेरणाप्रद सिद्ध हो सकती है।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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