हमारी वसीयत और विरासत (भाग 51)— अनगढ़ मन हारा, हम जीते

आत्मा, परमात्मा के घर में एकाकी आता है। खाना, सोना, चलना भी अकेले ही होता है। भगवान के घर भी अकेले ही जाना पड़ता है। फिर अन्य अवसरों पर भी आपको परिष्कृत और भावुक मन के सहारे उल्लास अनुभव कराता रहे, तो इसमें क्या आश्चर्य की बात है। अध्यात्म के प्रतिफल रूप में मन में इतना परिवर्तन तो दृष्टिगोचर होना ही चाहिए। शरीर को जैसे अभ्यास में ढालने का प्रयास किया जाता है, वह वैसा ही ढल जाता है। उत्तरी ध्रुव के एस्किमो केवल मछलियों के सहारे जिंदगी गुजार देते हैं। दुर्गम हिमालय एवं आल्प्स (पर्वत) के ऊँचे क्षेत्रों में रहने वाले अभावों के बावजूद स्वस्थ, लंबी जिंदगी जीते हैं। पशु भी घास के सहारे गुजारा कर लेते हैं। मनुष्य भी यदि उपयोगी पत्तियाँ चुनकर अपना आहार निर्धारित कर ले, तो अभ्यास न पड़ने पर ही थोड़ी गड़बड़ रहती है।
बाद में गाड़ी ढर्रे पर चलने लगती है। ऐसे-ऐसे अनेकों अनुभव हमें उस प्रथम हिमालययात्रा में हुए और जो मन सर्वसाधारण को कहीं-से-कहीं खींचे-खींचे फिरता है, वह काबू में आ गया और कुकल्पनाएँ देने के स्थान पर आनंद एवं उल्लास भरी अनुभूतियाँ अनायास ही देने लगा। संक्षेप में यही है, हमारी ‘सुनसान के सहचर’ पुस्तक का सार-संक्षेप। ऋतुओं की प्रतिकूलता से निपटने के लिए भगवान ने उपयुक्त माध्यम रखे हैं। जब इर्द-गिर्द बरफ पड़ती है, तब भी गुफाओं के भीतर समुचित गरमी रहती है। गोमुख-क्षेत्र की कुछ हरी झाड़ियाँ जलाने से जलने लगती हैं।
रात्रि को प्रकाश दिखाने के लिए ऐसी ही एक वनौषधि झिलमिल जगमगाती रहती है। तपोवन और नंदनवन में एक शकरकंद जैसा अत्यधिक मधुर स्वाद वाला ‘देवकंद’ जमीन में पकता है। ऊपर तो वह घास जैसा दिखाई देता है, पर भीतर से उसे उखाड़ने पर आकार में इतना बड़ा निकलता है कि कच्चा या भूनकर एक सप्ताह तक का गुजारा चल सकता है। भोजपत्र के तने की मोटी गाँठें होती हैं। उन्हें कूटकर चाय की तरह क्वाथ बना लिया जाए, तो पीने पर ठंड में भी अच्छा-खासा पसीना आ जाता है। नमक डाल लिया जाए तो ठीक; अन्यथा, बिना नमक के भी वह क्वाथ बड़ा स्वादिष्ट लगने लगता है। भोजपत्र का छिलका ऐसा होता है कि उसे बिछाने, ओढ़ने और पहनने के काम में आच्छादन रूप में लिया जा सकता है।
यह बातें यहाँ इसलिए लिखनी पड़ रही हैं कि भगवान ने हर ऋतु की असह्यता से निपटने के लिए सारी व्यवस्था रखी है। परेशान तो मनुष्य अपने मन की दुर्बलता से अथवा अभ्यस्त वस्तुओं की निर्भरता से होता है। यदि मनुष्य आत्मनिर्भर रहे तो तीन-चौथाई समस्याएँ हल हो जाती हैं। एक-चौथाई के लिए अन्य विकल्प ढूँढ़े जा सकते हैं और उनके सहारे समय काटने के अभ्यास किए जा सकते हैं। मनुष्य हर स्थिति में अपने को फिट कर सकता है। उसे तब हैरानी होती है, जब वह यह चाहता है कि अन्य सब लोग उसकी मरजी के अनुरूप बन जाएँ; परिस्थितियाँ अपने अनुकूल ढल जाएँ। यदि अपने को बदल लें तो हर स्थिति से गुजरा और उल्लासयुक्त बना रहा जा सकता है।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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