हमारी वसीयत और विरासत (भाग 53)— अनगढ़ मन हारा, हम जीते
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उपासना, साधना और आराधना में ‘साधना’ ही प्रमुख है। उपासना का कर्मकांड कोई नौकरी की तरह भी कर सकता है। आराधना— पुण्य-परमार्थ को कहते हैं। जिसने अपने को साध लिया है, उसके लिए और कोई काम करने के लिए बचता ही नहीं। उत्कृष्टतासंपन्न मन अपने लिए सबसे लाभदायक व्यवसाय— पुण्य-परमार्थ ही देखता है। इसी में उसकी अभिरुचि और प्रवीणता बन जाती है। हिमालय के प्रथम वर्ष में हमें आत्मसंयम की— मनोनिग्रह की साधना करनी पड़ी। जो कुछ चमत्कार हाथ लगे हैं, उसी के प्रतिफल हैं। उपासना तो समय काटने का एक व्यवसाय बन गया है।
घर चार घंटे नींद लिया करते थे। यहाँ उसे बढ़ाकर छह घंटे कर दिया; कारण कि घर पर तो अनेकों स्तर के अनेक काम रहते हैं। पर यहाँ तो दिन का प्रकाश हुए बिना मानसिक जप के अतिरिक्त और कुछ कर सकना ही संभव न था। पहाड़ों की ऊँचाई में प्रकाश देर से आता है और अँधेरा जल्दी हो जाता है। इसलिए बारह घंटे के अँधेरे में छह घंटे सोने के लिए और छह घंटे उपासना के लिए पर्याप्त होने चाहिए। स्नान का बंधन वहाँ नहीं रहा। मध्याह्न को ही नहाना और कपड़े सुखाना संभव होता था। इसलिए परिस्थिति के अनुरूप दिनचर्या बनानी पड़ी। दिनचर्या के अनुरूप परिस्थितियाँ तो बन नहीं सकती थीं।
‘‘प्रथम हिमालययात्रा कैसी संपन्न हुई?’’ इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि परिस्थितियों के अनुरूप मन को ढाल लेने का अभ्यास भली प्रकार कर लिया। इसे यों भी कह सकते हैं कि आधी मंजिल पार कर ली। इस प्रकार प्रथम वर्ष में दबाव तो अत्यधिक सहने पड़े, तो भी कच्चा लोहा तेज आग की भट्टी में ऐसा लोहा बन गया, जो आगे चलकर किसी भी काम आ सकने के योग्य बन गया।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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