हमारी वसीयत और विरासत (भाग 54)— अनगढ़ मन हारा, हम जीते
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पिछला जीवन बिलकुल दूसरे ही ढर्रे में ढला था। सुविधाओं और साधनों के सहारे गाड़ी लुढ़क रही थी। सब कुछ सीधा और सरल लग रहा था, पर हिमालय पहुँचते ही सब कुछ उलट गया। वहाँ की परिस्थितियाँ ऐसी थीं, जिनमें निभ सकना केवल उन्हीं के लिए संभव था, जो छिड़ी लड़ाई के दिनों में कुछ ही समय की ट्रेनिंग लेकर सीधे मोर्चे पर चले जाते हैं और उस प्रकार के साहस का परिचय देते हैं, जिसका इससे पूर्व कभी पाला नहीं पड़ा था।
प्रथम हिमालययात्रा का प्रत्यक्ष प्रतिफल एक ही रहा कि अनगढ़ मन हार गया और हम जीत गए। प्रत्येक नई असुविधा को देखकर उसने नए बछड़े की तरह हल में चलने से कम आनाकानी नहीं की, किंतु उसे कहीं भी समर्थन न मिला। असुविधाओं को उसने अनख तो माना और लौट चलने की इच्छा प्रकट की, किंतु पाला ऐसे किसान से पड़ा था, जो मरने-मारने पर उतारू था। आखिर मन को झक मारनी पड़ी और हल में चलने का अपना भाग्य अंगीकार करना पड़ा। यदि जी कच्चा पड़ा होता तो स्थिति वह नहीं बन पड़ती, जो अब बन गई है। पूरे एक वर्ष नई-नई प्रतिकूलताएँ अनुभव होती रहीं। बार-बार ऐसे विकल्प उठते रहे, जिसका अर्थ होता था कि इतनी कड़ी परीक्षा में पड़ने पर हमारा स्वास्थ्य बिगड़ जाएगा; भविष्य की सांसारिक प्रगति का द्वार बंद हो जाएगा, इसलिए समूची स्थिति पर पुनर्विचार करना चाहिए।
एक बार तो मन में ऐसा ही तमोगुणी विचार भी आया, जिसे छिपाना उचित नहीं होगा। वह यह कि जैसा बीसियों ढोंगियों ने हिमालय का नाम लेकर अपनी धर्मध्वजा फहरा दी है, वैसा ही कुछ करके सिद्धपुरुष बन जाना चाहिए और उस घोषणा के आधार पर जन्म भर गुलछर्रे उड़ाने चाहिए। ऐसे बीसियों आदमियों की चरित्रगाथा और ऐशोआराम भरी विडंबना का हमें आद्योपांत परिचय है। यह विचार उठा, वैसे ही उसे तत्क्षण जूते के नीचे दबा दिया। समझ में आ गया कि मन की परीक्षा ली जा रही है। सोचा कि जब अपनी सामान्य प्रतिभा के बलबूते ऐशोआराम के आडंबर खड़े किए जा सकते हैं, तो हिमालय को— सिद्धपुरुषों को— सिद्धियों को— भगवान को— तपश्चर्या को बदनाम करके आडंबर रचने से क्या फायदा?
उस प्रथम वर्ष में मार्गदर्शक ऋषिसत्ता के साक्षात्कार ने हमें आमूलचूल बदल दिया। अनगढ़ मन के साथ नए परिष्कृत मन का मल्लयुद्ध होता रहा और यह कहा जा सकता है कि परिणामस्वरूप हम पूरी विजयश्री लेकर वापस लौटे।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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