हमारी वसीयत और विरासत (भाग 56)— प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
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पिछली बार जो तीन परीक्षाएँ ली थीं, इस बार इनमें से एक से भी पाला नहीं पड़ा। जो परीक्षा ली जा चुकी है, उसी को बार-बार लेने की आवश्यकता भी नहीं समझी गई। गंगोत्री तक का रास्ता ऐसा था, जिसके लिए किसी से पूछताछ नहीं करनी थी। गंगोत्री से गोमुख के 14 मील ही ऐसे हैं, जिसका रास्ता बरफ पिघलने के बाद हर साल बदल जाता है; चट्टानें टूट जाती हैं और इधर-से-उधर गिर पड़ती हैं। छोटे नाले भी चट्टानों से रास्ता रुक जाने के कारण अपना रास्ता इधर-से-उधर बदलते रहते हैं। नए वर्ष का रास्ता यों तो उस क्षेत्र से परिचित किसी जानकार को लेकर पूरा करना पड़ता था, या फिर अपनी विशेष बुद्धि का सहारा लेकर अनुमान के आधार पर बढ़ते और रुकावट आ जाने पर लौटकर दूसरा रास्ता खोजने का क्रम चलता रहा। इस प्रकार गोमुख जा पहुँचे।
आगे के लिए गुरुदेव का संदेशवाहक साथ जाना था। वह भी सूक्ष्मशरीरधारी था। छायापुरुष यों वीरभद्र स्तर का था। समय-समय पर वे उसी से अनेकों काम लिया करते थे। जितनी बार हमें हिमालय जाना पड़ा, तब नंदनवन एवं और ऊँचाई तक तथा वापस गोमुख पहुँचाने का काम उसी के जिम्मे था। सो उस सहायक की सहायता से हम अपेक्षाकृत कम समय में और अधिक सरलतापूर्वक पहुँच गए। रास्ते भर दोनों ही मौन रहे।
नंदनवन पहुँचते ही गुरुदेव का सूक्ष्मशरीर प्रत्यक्ष रूप में सामने विद्यमान था। उसके प्रकट होते ही हमारी भावनाएँ उमड़ पड़ीं; होंठ काँपते रहे; नाक गीली होती रही। ऐसा लगता रहा, मानो अपने ही शरीर का कोई खोया अंग फिर मिल गया हो और उसके अभाव में जो अपूर्णता रहती हो, सो पूर्ण हो गई हो। उनका सिर पर हाथ रख देना हमारे प्रति अगाध प्रेम के प्रकटीकरण का प्रतीक था। अभिवादन-आशीर्वाद का शिष्टाचार इतने से ही पूर्ण हो गया। गुरुदेव ने हमें संकेत किया, ऋषिसत्ता से पुनः मार्गदर्शन लिए जाने के विषय में। हृदय में रोमांच हो उठा।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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