दोष-दृष्टि को सुधारना ही चाहिए (भाग 1)

क्या कभी अपने यह सोचा कि आप पग-पग पर खिन्न, असंतुष्ट, उद्विग्न अथवा उत्तेजित क्यों रहते हैं? क्यों आपको समाज, संसार मनुष्यों, मित्रों, वस्तुओं, परिस्थितियों यहाँ तक अपने से भी शिकायत रहती है? आप सब कुछ करते, बरतते और भोगते हुए भी वह मजा, आनन्द और प्रसन्नता नहीं पाते, जो मिलनी चाहिये और संसार के अन्य असंख्यों लोग पा रहे हैं। आप विचारक, आलोचक, शिक्षित, और सभ्य भी हैं, किन्तु आपकी यह विशेषता भी आपको प्रसन्न नहीं कर पाती। स्त्री-बच्चे, घर, मकान सब कुछ आपको उपलब्ध है। फिर भी आप अपने अन्दर एक अभाव और एक असंतोष अनुभव ही करते रहते हैं। घर, बाहर, मेले-ठेले, सफर, यात्रा, सभा-समितियों, भाषणों, वक्तव्यों- किसी में भी कुछ मजा ही नहीं आता। हर समय एक नाराजी, नापसन्दी एवं नकारात्मक ध्वनि परेशान ही रखती है। संसार की किसी भी बात, वस्तु और व्यक्ति से आपका तादात्म्य ही स्थापित हो पाता है।
साथ ही आप पूर्ण स्वस्थ हैं। मस्तिष्क का कोई विकार आपमें नहीं है। आपका अन्तःकरण भी सामान्य दशा में है और आस-पास में ऐसी कोई घटना भी नहीं घटी है, जिससे आपकी अभिरुचिता एवं प्रसादत्व विक्षत हो गया हो। ऐसा भी नहीं हुआ कि विगत दिनों में ही किसी ऐसे अप्रिय संयोग से सामंजस्य स्थापित करना है, जिसकी अनुभूति आज भी आपको विषाण बनाये हुए हैं।
वास्तव में बात बड़ी ही विचित्र और अबूझ-सी मालूम होती है। जब प्रत्यक्ष में इस स्थायी अप्रियता का कोई कारण नहीं दिख पड़ा, फिर ऐसा कौन-सा चोर, कौन-सा ठग आपके पीछे अप्रत्यक्ष रूप से लगा हुआ है, जो हर बात के आनन्द से आपको वंचित किए हुये आपके जन्म-सिद्ध अधिकार प्रसन्नता का अपहरण कर लिया करता है। इसको खोजिये, गिरफ्तार करिये और अपने पास से मार भगाइये। जीवन में सदा दुःखी और खिन्नावस्था में रहने का पाप न केवल वर्तमान ही बल्कि आगामी शत-शत जीवनों तक को प्रभावित कर डालता है।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति, मई 1968, पृष्ठ 22
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