आज का सद्चिंतन 26 July 2018
मित्रो ! भगवान ने अपने बाद चेतना का दूसरा स्तर मनुष्य का ही बनाया है। मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेंद्रियाँ इतनी समर्थ हैं कि
उसे सृष्टि का सर्व समर्थ प्राणी कहा जाना उचित है। यह उसके काय- कलेवर की विशेषता है। सचेतन अदृश्य सत्ता का, यदि लेखा-जोखा लिया जाए, तो प्रतीत होगा कि न केवल भौतिक जगत पर, वरन् अदृश्य क्षेत्र के रूप में जाने वाले सूक्ष्म जगत पर भी उसका असाधारण अधिकार है। दृश्य और अदृश्य दोनों ही लोकों पर उसका अधिकार होने से मानवी सत्ता को सुर दुर्लभ भी कहा जाता है। किसी ने सच ही कहा है कि मनुष्य भटका हुआ देवता है। उसके अंतराल में दैवी शक्तियों का तत्वतः समग्र निवास है, पर दृश्य जगत के जाल जंजाल में स्वयं को भूल जाने के कारण ठोकरें खाता और जहाँ-जहाँ भटकता है।
गड़बड़ी वहाँ से प्रारंभ होती है, जहाँ वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूल कर अपने को कलेवर मात्र समझता है। वाहन को अधिपति मान बैठता है और गोबर भरी मशक में अपने को समाया भर मानता है। दर्पण में अपनी छवि तो होती है, व्यक्तित्व नहीं। शरीर कुछ तो है, पर सब कुछ नहीं। उसकी इच्छा, आवश्यकता को भी पूरा किया जाना चाहिए, पर मात्र उसी के लिए सब कुछ निछावर कर देना भूल है। अच्छा होता सवार और घोड़े का संबंध भी समझ लिया होता। भेड़ों के झुण्ड में पले सिंह ने अपने को भेड़ मान लिया था। यह कथा सुनी तो बहुतों ने है, पर यह अनुभव कोई बिरले ही करते हैं कि उपहासास्पद कथा-उक्ति सीधी अपने ही ऊपर लागू होती है।
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