आज का सचिंतन
मित्रो ! शिक्षा को लोक व्यवहार का, उपार्जन प्रक्रिया का सुविधा संग्रह का एक प्रयोजन भर माना जा सकता है। इतने भर से किसी का जीवन स्तर ऊँचा नहीं उठ सकता है। सज्जनता-शालीनता की विद्या के अभाव में मनुष्य का भावनात्मक स्तर पशुवत ही बनकर रह जाता है।
विद्या की एक सांगोपांग रूपरेखा बनानी पड़ेगी और उसे जन-जन के मन-मन में प्रविष्ट करने की इतनी बड़ी इतनी व्यापक योजना बनानी पड़ेगी, जो
स्कूली शिक्षा की कमी पूरी करने में समर्थ हो सके। इसके लिए विचारशील भाव संपन्नों का समय, श्रम मनोयोग एवं पुरुषार्थ प्रायः उतनी ही मात्रा में
नियोजित करना पड़ेगा, जितना कि सरकारी और गैर सरकारी स्कूलों शरीर साधन जुटाने के लिए शिक्षा के साथ, बड़ी तैयारियों का समन्वय करते हुए व्यापक स्तर पर क्रियान्वित करना इन्हीं दिनों अभीष्ट है।
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