प्राणवान् प्रतिभाओं की खोज
समय की माँग के अनुरूप, दो दबाव (१) इन दिनों निरन्तर बढ़ते जा रहे हैं। एक व्यापक अवांछनीयताओं से जूझना और उन्हें परास्त करना। दूसरा है- नवयुग की सृजन व्यवस्था को कार्यान्वित करने की समर्थता। निजी और छोटे क्षेत्र में भी वह दोनों कार्य अति कठिन पड़ते हैं; फिर जहाँ देश, समाज या विश्व का प्रश्न है, तो कठिनाई का अनुपात असाधारण ही होगा।
प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए तदनुरूप योग्यता एवं कर्म निष्ठा उत्पन्न करनी पड़ती है। साधन जुटाने पड़ते हैं। इनके बिना सामान्य स्थिति में रहते हुए किसी प्रकार दिन काटते ही बन पड़ता है। इसी प्रकार कठिनाइयों से जूझने, अड़चनों को निरस्त करने और मार्ग रोककर बैठे हुए अवरोधों को किसी प्रकार हटाने के लिए समुचित साहस, शौर्य और सूझ-बूझ का परिचय देना पड़ता है। अनेक समस्याएँ और कठिनाइयाँ आये दिन त्रास और संकट भरी परिस्थितियाँ ही बनी रहती हैं, जो कठिनाइयों से जूझ सकता है और प्रगति की दिशा में बढ़ चलने के साधन जुटा सकता है, उसी को प्रतिभावान् कहते हैं।
प्रतिभा की निजी जीवन के विकास में निरन्तर आवश्यकता पड़ती है और अवरोधों को निरस्त करने में जो भी आगे बढ़े-ऊँचे उठे हैं, उन्हें यह दोनों ही सरंजाम जुटाने पड़े हैं। १. उत्कर्ष की सूझ-बूझ और २. कठिनाइयों से लड़ सकने की हिम्मत, इन दोनों के बिना उन्नतिशील जीवन जी सकना संभव ही नहीं होता। फिर सामुदायिक सार्वजनिक क्षेत्र में सुव्यवस्था बनाने के लिए और भी अधिक प्रखरता चाहिए। यह विशाल क्षेत्र, आवश्यकताओं और गुत्थियों की दृष्टि से तो और भी बढ़ा-चढ़ा होता है।
तीन मुख्य वर्ग- मनुष्यों की आकृति-प्रकृति तो एक जैसी होती है, पर उनके स्तरों पर भारी भिन्नता पाई जाती है। (एक वर्ग में) हीन स्तर के लोग परावलम्बी होते हैं। वे आँखें बन्द करके दूसरों के पीछे चलते हैं। औचित्य कहाँ है, इसकी विवेचना बुद्धि इनमें नहीं के बराबर होती है। वे साधनों के लिए, मार्गदर्शन के लिए, दूसरों पर निर्भर रहते हैं। यहाँ तक कि जीवनोपयोगी साधन तक अपनी स्वतंत्र चेतना के बलबूते नहीं जुटा पाते। उनके उत्थान पतन का निमित्त कारण दूसरे ही बने रहते हैं। यह परजीवी वर्ग ही मनुष्यों में बहुलता के साथ पाया जाता है। अनुकरण और आश्रय ही उनके स्वभाव का अंग बनकर रहता है। निजी निर्धारण कदाचित् ही कभी कर पाते हैं। यह हीन वर्ग है। सम्पदा रहते हुए भी उन्हेें दीन-हीन कहा जा सकता है।
दूसरा वर्ग है- जो समझदार होते हुए भी संकीर्ण स्वार्थपरता से घिरा रहता है। योग्यता और तत्परता जैसी विशेषताएँ होते हुए भी वे उन्हें मात्र लोभ, मोह, अहंकार की पूर्ति के लिए ही नियोजित किए रहते हैं। उनकी नीति अपने मतलब से मतलब रखने की होती है। आदर्श उन्हें प्रभावित नहीं करते। कृपणता और कायरता के दबाव से वे पुण्य-परमार्थ की बात तो सोच ही नहीं पाते। अवसर मिलने पर अनुचित कर बैठने से भी नहीं चूकते, महत्त्व न मिलने पर वे अनर्थ कर बैठते हैं। गूलर के भुनगे जैसी स्व-केन्द्रित जिन्दगी ही जी पाते हैं। बुद्धिमान और धनवान् होते हुए भी इन लोगों को निर्वाह भर में समर्थ ‘प्रजाजन’ ही कहा जाता है। वे जिस-तिस प्रकार जी तो लेते हैं, पर श्रेय-सम्मान जैसी किसी मानवोचित उपलब्धि के साथ उनका कोई सम्बन्ध ही नहीं जुड़ता। उन्हें जनसंख्या का एक घटक भर माना जाता है। फिर भी वे दीन-हीनों की तरह परावलम्बी या भारभूत नहीं होते। उनकी गणना व्यक्तित्व की दृष्टि से अपंग अविकसित और असहायों में नहीं होती। कम से कम अपने बोझ अपने पैरों पर तो उठा लेते हैं।
http://literature.awgp.org/book/Refinement_of_Talents_Need_of_the_present_Era/v10.1
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