आत्मविजेता ही विश्व विजेता

साधना से तात्पर्य है ‘आत्मानुशासन’। अपने ऊपर विजय प्राप्त करने वाले को सबसे बढ़कर योद्धा माना गया है। दूसरों पर आक्रमण करना सरल है। बेखबर लोगों पर हमला करना तो और भी सरल है। इसलिए आक्रमणकारियों को योद्धा कहने का औचित्य कम ही है।
असली शत्रु हमारे कुसंस्कार हैं, जो पशु प्रवृत्तियों के रूप में अन्तरंग की उत्कृष्टता को दबाये बैठे रहते हैं और उत्कृष्टता की दृष्टि में एक कदम बढ़ाने की तैयारी करते ही भारी अड़चन बनकर द्वार रोकते हैं। इनसे निपटना कम बहादुरी का काम नहीं है।
घुन लकड़ी को और विषाणु स्वास्थ्य को चौपट करते हैं। व्यसन और दुर्गुण ही मनुष्य को नीचे गिराते हैं। और उसके अभ्युदय का कोई प्रयास सफल नहीं होने देते।
यदि हम अपने असली शत्रुओं को समझ पायें और उनकी जड़ों को उखाड़ पायें, तो समझना चाहिए कि परम पुरुषार्थ कर गुजरने में सफलता पाई। ऋषि- मनीषी इसलिये बार- बार यह कहते आये हैं- अपने को जानो ,, अपने आपे को पहचानो, देखो और सुनने का प्रयास करो। इसका भावार्थ यही है कि अपने अन्दर क्या है? हमसे अच्छा कौन जान सकता है? दूसरों के दोष देखना सरल है, अपने दोष देख पाना सबसे कठिन। जो ऐसा आत्मपरिष्कार कर लेता है- ऐसा आत्मविजेता ही विश्वविजेता कहलाता है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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