आत्म निर्माण की ओर (अन्तिम भाग)

जब तुम किसी व्यक्ति के व्यवहार में संकीर्णता पाओ, किसी से किसी की चुगली सुनो तो उसके अनुसार कोई काम मत कर डालो और न वह बात लोगों में जाहिर करो। इससे तो वह दुर्गुण फैलता है-दुर्गंध की भाँति और सब सुनने देखने वालों के मन को दूषित करता है। इसके बदले उस दुर्गुण को कम करो। दुर्गुण की चर्चा करने से दिन दूना रात चौगुना बढ़ता है। रोग तो औषधि से शान्त होता है, गरम लोहे को ठण्डा लोहा काटता है। आग पानी से बुझती है। क्रोध नम्रता से शान्त होता है। अतः दुर्गुण से दुर्गुण उसी प्रकार बढ़ता है जैसे क्रोधी व्यक्ति से क्रोधपूर्ण बर्ताव करने से और आग में आग डालने के समान होता है। अतएव दुर्गुण की औषधि है सद्गुण।
यदि तुम्हारे बच्चे से, तुम्हारी स्त्री से, तुम्हारे नौकर से अमुक काम नहीं बनता, वरन् इन्होंने कोई काम बिगाड़ दिया और नुकसान हो गया हो तो क्रोध करने, तिरस्कार और निकृष्ट आलोचना करने से सबके मन में हीनता और पश्चाताप के भाव पैदा होगा। काम बिगड़ जाने से उन्हें पश्चाताप तो है ही, परन्तु तुम्हारे शब्दों से उन्हें बहुत ही चोट पहुँचेगी, इससे वे भयभीत और संकुचित होंगे, आगे वैसा कोई काम करने की उन्हें हिम्मत न होगी-कह देंगे- हमसे न होगा - बिगड़ जायगा, टूट जायगा- इत्यादि।
उनका छिद्रान्वेषण करने, उनका तिरस्कार करने, हीन, निर्बुद्धि और निकृष्ट बनाने में तुम्हारे मन में भी संताप से कितना विष उत्पन्न होकर रक्त को विषाक्त करेगा - इसकी कल्पना तुम्हें नहीं है। अस्तु, दूसरों का तिरस्कार करने की अपेक्षा उक्त घटना को यह समझ कर क्षमा कर देना चाहिए कि क्रोध और तिरस्कार से कुछ तो बनेगा नहीं, भविष्य में सुधार के लिए उन्हें शिक्षा दे देनी चाहिए। हंसकर उन्हें अमुक काम ठीक प्रकार से करना सिखला दो तो वे तुम्हें महान समझेंगे, तुमसे प्रेम करेंगे और सावधानी तथा प्रेमपूर्वक हरेक काम करेंगे।
दूसरे लोग जैसा सोचते हैं जो बोलते या करते हैं-उसकी जिम्मेदारी उन पर है, तुम्हें क्या चिन्ता? परन्तु तुम जैसा सोचते हो, जो बोलते या करते हो उसकी जिम्मेदारी तुम पर है-उसकी चिन्ता तुम्हें होनी चाहिए।
किसी घटना से उतनी हानि नहीं होती, वरन् उस घटना से हम स्वयं अपने विचारों द्वारा अपनी हानि अधिक कर लेते हैं। कोई विपत्ति आने और घटना होने पर कोई रोता बिलखता है, दूसरा व्यक्ति उसे छोड़कर निर्माण में लग जाता है। हुआ सो हुआ, अब आगे सुधारो। इन दोनों व्यक्तियों में कितना अन्तर है?
तुम किसी योजना में लगे हो, तो धैर्यपूर्वक प्रयत्नशील रहो, यह मत सोचो, और मत कहो अरे इतने दिन तो हो गये, न जाने कब यह पूरा होगा। वरन् ऐसा विचार करो-प्रतिदिन यह धीरे-धीरे अब पूरा हो रहा है।
किसी के विषय में शीघ्र ही अपना मत स्थिर करके निर्णय मत कर दो। कोई व्यक्ति शराब पीता है तो मत कहो कि वह बुरा कर्म करता है, संभव है उसे औषधि रूप में शराब की आवश्यकता हो, परन्तु उसकी दुर्दशा देखकर इतना अवश्य समझ सकते हो कि शराब पीना बुरा नहीं, वरन् अधिक पीना बुरा है।
तुम दूसरों को कैसा समझते हो दूसरे लोग तुम्हें क्या समझते हैं- यह अपनी-2 मनोवृत्ति विकास और दृष्टिकोण का प्रतिबिम्ब है। परन्तु तुम वास्तव में क्या हो, इसका विचार करो अपना सुधार और निर्माण करते रहो, संसार के लोग कुछ भी कहें।
.....समाप्त
.... क्रमशः जारी
अखण्ड ज्योति -अगस्त 1948 पृष्ठ 25
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