युग परिवर्तन का आधार भावनात्मक नव निर्माण (भाग ३)

यह हलचलें जन- जन में दृष्टिगोचर होंगी। समुन्नत आत्मा निजी सुख सुविधाओं को तिलाञ्जलि देकर विश्व के भावनात्मक नव निर्माण को इस युग की सर्वोत्तम साधना, उपासना, तपश्चर्या एवं आवश्यकता समझते हुए इसी में सर्वतो भावेन संलग्न होगी। साथ ही सामान्य स्तर के व्यक्तियों में इतना विवेक तो अनायास ही जागृत होगा कि वे अन्धकार और प्रकाश का अन्तर समझ सकें। अनुचित के लिए दुराग्रह छोड़कर न्याय और विवेक के आधार पर प्रतिदिन उचित को स्वीकार कर सकें। इस प्रकार उभय पक्षीय सुयोग संयोग उस प्रयोजन को अग्रगामी बनाता चला जायेगा जो युग परिवर्तन का मूलभूत आधार है।
आज की स्थिति को देखते हुए यह दोनों ही कार्य कठिन दीखते हैं। धर्म विडम्बना के सस्ते प्रलोभनों को तिरस्कृत कर धर्म प्रेमी लोग कष्ट साध्य परमार्थ में प्रवेश करेंगे यह कठिन है। बुद्धिजीवी अपनी अच्छी खासी सुविधाओं का परित्याग कर लोक मंगल के लिए दर- दर ठोकरें खायेंगे यह भी कठिन ही दीखता है। पर समय यह भी कराके छोड़ेगा। रीछ वानर अपने प्राण हथेली पर रख कर मौत से लड़ने गये थे। बुद्ध के ढाई लाख अनुयायी यौवन की उमंगों को कुचलते हुए भिक्षुक बनने की जटिल प्रक्रिया स्वीकार करने को सहमत हुए थे। गाँधी की पुकार पर लाखों ने अपनी बर्बादी को स्वीकार किया था। उसी प्रकरण को यदि इतिहास फिर दुहराए तो इसे न कठिन मानना चाहिए और न असंभव। जो भूतकाल में होता रहा है उसकी पुनरावृत्ति को कठिन या जटिल मानने का कोई कारण नहीं। समय की पुकार इस कष्टसाध्य प्रक्रिया को भी पूरा करके रहेगी। जीवन्त और जागृत आत्माओं का एक बड़ा वर्ग निकट भविष्य में ही आगे आवेगा और ज्ञान तंत्र का ऐसा विशालकाय शस्त्रागार खड़ा करेगा, जिसकी सहायता से अनाचार की लंका को ध्वस्त किया जा सके।
धर्म अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होगा। उसके प्रसार प्रतिपादन का ठेका किसी वेश या वंश विशेष पर न रह जायेगा। सम्प्रदाय वादियों के डेरे उखड़ जायेंगे, उन्हें मुफ्त के गुलछर्रे उड़ाने की सुविधा छिनती दीखेगी तो कोई उपयोगी धंधा अपनाकर भले मानसों की तरह आजीविका उपार्जित करेंगे। तब चरित्र, परिष्कृत ज्ञान एवं लोक मंगल के लिए प्रस्तुत किया गया अनुदान ही किसी को सम्मानित या श्रद्धास्पद बना सकेगा। पाखण्ड पूजा के बल पर जीने वाले उलूक उस दिवा प्रकाश से भौंचक होकर देखेंगे और किसी कोटर में बैठे दिन गुजारेंगे। अज्ञानान्धकार में जो पौ बारह रहती थी उन अतीत की स्मृतियों को वे ललचाई दृष्टि से सोचते तो रहेंगे पर फिर समय लौटकर कभी आ न सकेगा।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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