हमारी वसीयत और विरासत (भाग 2)— "इस जीवनयात्रा के गंभीरतापूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता"

इस जीवनयात्रा के गंभीरतापूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता:—
हमारी जीवनगाथा सब जिज्ञासुओं के लिए एक प्रकाश-स्तंभ का काम कर सकती है। वह एक बुद्धिजीवी और यथार्थवादी द्वारा अपनाई गई कार्यपद्धति है। छद्म जैसा कुछ उसमें है नहीं। असफलता का लांछन भी उन पर नहीं लगता। ऐसी दशा में जो गंभीरता से समझने का प्रयत्न करेगा कि सही लक्ष्य तक पहुँचने का सही मार्ग हो सकता था— शार्टकट के फेर में भ्रम-जंजाल न अपनाए गए होते, तो निराशा, खीज और थकान हाथ न लगती; तब या तो मँहगा समझकर हाथ ही न डाला जाता; यदि पाना ही था तो उसका मूल्य चुकाने का साहस पहले से ही सँजोया गया होता— ऐसा अवसर उन्हें मिला नहीं। इसी को दुर्भाग्य कह सकते हैं। यदि हमारा जीवन पढ़ा गया होता; उसके साथ आदि से अंत तक गुथे हुए अध्यात्मतत्त्व दर्शन और क्रिया-विधान को समझने का अवसर मिला होता, तो निश्चय ही प्रच्छन्न भ्रमग्रस्त लोगों की संख्या इतनी न रही होती, जितनी अब है।
एक और वर्ग है— विवेकदृष्टि वाले यथार्थवादियों का। वे ऋषिपरंपरा पर विश्वास करते हैं और सच्चे मन से विश्वास करते हैं कि वे आत्मबल के धनी थे। उन विभूतियों से उनने अपना, दूसरों का और समस्त विश्व का भला किया था। भौतिक विज्ञान की तुलना में जो अध्यात्म विज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं, उनकी एक जिज्ञासा यह भी रहती है कि वास्तविक स्वरूप और विधान क्या है? कहने को तो हर कुंजड़ी अपने बेरों को मीठा बताती है, पर कथनी पर विश्वास न करने वालों द्वारा उपलब्धियों का जब लेखा-जोखा लिया जाता है, तब प्रतीत होता है कि कौन, कितने पानी में है ?
सही क्रिया, सही लोगों द्वारा, सही प्रयोजनों के लिए अपनाए जाने पर उसका सत्परिणाम भी होना चाहिए। इस आधार पर जिन्हें ऋषिपरंपरा के अध्यात्म का स्वरूप समझना हो, उन्हें निजी अनुसंधान करने की आवश्यकता नहीं है। वे हमारी जीवनचर्या को आदि से अंत तक पढ़ और परख सकते हैं। विगत साठ वर्षों में प्रत्येक वर्ष इसी प्रयोजन के लिए व्यतीत हुआ है। उसके परिणाम भी खुली पुस्तक की तरह सामने हैं। इन पर गंभीर दृष्टिपात करने पर यह अनुमान निकल सकता है कि सही परिणाम प्राप्त करने वालों ने सही मार्ग भी अवश्य अपनाया होगा। ऐसा अद्भुत मार्ग दूसरों के लिए भी अनुकरणीय हो सकता है। आत्म-विद्या और अध्यात्म विज्ञान की गरिमा से जो प्रभावित है; उसका पुनर्जीवन देखना चाहते हैं; प्रतिपादनों को परिणतियों की कसौटी पर कसना चाहते हैं, उन्हें निश्चय ही हमारी जीवनचर्या के पृष्ठों का पर्यवेक्षण, संतोषप्रद और समाधानकारक लगता है।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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