हमारी वसीयत और विरासत (भाग- 3) — "इस जीवनयात्रा के गंभीरतापूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता"

इस जीवनयात्रा के गंभीरतापूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता:—
प्रत्यक्ष घटनाओं की दृष्टि से कुछ प्रकाशित किये जा रहे प्रसंगों को छोड़कर हमारे जीवनक्रम में बहुत विचित्रताएँ एवं विविधताएँ नहीं हैं। कौतुक-कौतूहल व्यक्त करने वाली उछल-कूद एवं जादू-चमत्कारों की भी उसमें गुंजाइश नहीं है। एक सुव्यवस्थित और सुनियोजित ढर्रे पर निष्ठापूर्वक समय कटता रहा है। इसलिए विचित्रताएँ ढूँढ़ने वालों को उसमें निराशा भी लग सकती है। पर जो घटनाओं के पीछे काम करने वाले तथ्यों और रहस्यों में रुचि लेंगे, उन्हें इतने से भी अध्यात्म— सनातन, के परंपरागत प्रवाह का परिचय मिल जाएगा और वे समझ सकेंगे कि सफलता-असफलता का कारण क्या है? क्रियाकांड को सब कुछ मान बैठना और व्यक्तित्व के परिष्कार की— पात्रता की प्राप्ति पर ध्यान न देना— यही एक कारण है, जिसके चलते उपासना-क्षेत्र में निराशा छाई और अध्यात्म को उपहासास्पद बनने— बदनाम होने का लांछन लगा। हमारे क्रिया-कृत्य सामान्य हैं, पर उसके पीछे उस पृष्ठभूमि का समावेश है, जो ब्रह्मतेजस् को उभारती और उसे कुछ महत्त्वपूर्ण कर सकने की समर्थता तक ले जाती है।
जीवनचर्या के घटनापरक विस्तार से कौतूहल बढ़ने के अतिरिक्त कुछ लाभ है नहीं। काम की बात है— इन क्रियाओं के साथ जुड़ी हुई अंतर्दृष्टि और उस आन्तरिक तत्परता का समावेश, जो छोटे-से बीज की खाद-पानी की आवश्यकता पूरी करते हुए विशाल वृक्ष बनाने में समर्थ होती रही। वस्तुतः साधक का व्यक्तित्व ही साधनाक्रम में प्राण फूँकता है; अन्यथा, मात्र क्रिया-कृत्य खिलवाड़ बनकर रह जाते हैं।
तुलसी का राम, सूर का हरे कृष्ण, चैतन्य का संकीर्तन, मीरा का गायन, रामकृष्ण का पूजन मात्र क्रिया-कृत्यों के कारण सफल नहीं हुआ था। ऐसा औड़म-बौड़म तो दूसरे असंख्य करते रहते हैं, पर उनके पल्ले विडंबना के अतिरिक्त और कुछ नहीं पड़ता। वाल्मीकि ने जीवन बदला तो उलटा नाम जपते ही मूर्द्धन्य हो गए। अजामिल, अंगुलिमाल, गणिका, आम्रपाली मात्र कुछ अक्षर दुहराना ही नहीं सीखे थे, उनने अपनी जीवनचर्या को भी अध्यात्म आदर्शों के अनुरूप ढाला।
आज कुछ ऐसी विडंबना चल पड़ी है कि लोग कुछ अक्षर दुहराने और क्रिया-कृत्य करने— स्तवन-उपहार प्रस्तुत करने भर से अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। चिंतन, चरित्र और व्यवहार को उस आदर्शवादिता के ढाँचे में ढालने का प्रयत्न नहीं करते, जो आत्मिक प्रगति के लिए अनिवार्य रूप में आवश्यक है। अपनी साधना-पद्धति में इस भूल का समावेश न होने देने का आरंभ से ही ध्यान रखा गया। अस्तु, वह यथार्थवादी भी है और सर्वसाधारण के लिए उपयोगी भी। इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर ही जीवन चर्या को पढ़ा जाए।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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