हमारी वसीयत और विरासत (भाग 4)— "जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय"

जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय:—
हमारे जीवन का पचहत्तरवाँ वर्ष पूरा हो चुका। इस लंबी अवधि में मात्र एक काम करने का मन हुआ और उसी को करने में जुट गए। वह प्रयोजन था— ‘साधना से सिद्धि’ का अन्वेषण— पर्यवेक्षण। इसके लिए यही उपयुक्त लगा कि जिस प्रकार अनेक वैज्ञानिकों ने पूरी-पूरी जिंदगियाँ लगाकर अन्वेषण कार्य किया और उसके द्वारा समूची मानव जाति की महती सेवा संभव हो सकी, ठीक उसी प्रकार यह देखा जाना चाहिए कि पुरातनकाल से चली आ रही ‘साधना से सिद्धि’ की प्रक्रिया का सिद्धांत सही है या गलत? इसका परीक्षण दूसरों के ऊपर न करके अपने ऊपर किया जाए।
यह विचारणा दस वर्ष की उम्र से उठी एवं पंद्रह वर्ष की आयु तक निरंतर विचार-क्षेत्र में चलती रही। इसी बीच अन्यान्य घटनाक्रमों का परिचय देना हो, तो इतना ही बताया जा सकता है कि हमारे पिताजी अपने सहपाठी महामना मालवीय जी के पास से हमारा उपनयन संस्कार कराके लाए। उसी को ‘गायत्री दीक्षा’ कहा गया। ग्राम के स्कूल में प्राइमरी पाठशाला तक की पढ़ाई की। पिताजी ने ही लघुसिद्धांतकौमुदी-सिद्धांतकौमुदी के आधार पर संस्कृत व्याकरण पढ़ा दिया। वे श्रीमद्भागवत की कथाएँ कहने राजा-महाराजाओं के यहाँ जाया करते थे। मुझे भी साथ ले जाते। इस प्रकार भागवत का आद्योपांत वृत्तांत याद हो गया।
इसी बीच विवाह भी हो गया। पत्नी अनुशासनप्रिय, परिश्रमी, सेवाभावी और हमारे निर्धारणों में सहयोगिनी थी। बस समझना चाहिए कि पंद्रह वर्ष समाप्त हुए।
संध्यावंदन हमारा नियमित क्रम था। मालवीय जी ने गायत्री मंत्र की विधिवत् दीक्षा दी थी और कहा था कि, ‘‘यह ब्राह्मण की कामधेनु है। इसे बिना नागा किए जपते रहना। पाँच माला अनिवार्य; अधिक जितनी हो जाएँ, उतनी उत्तम।’’ उसी आदेश को मैंने गाँठ बाँध लिया और उसी क्रम को अनवरत चलाता रहा।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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