हमारी वसीयत और विरासत (भाग 6)— जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय

जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय:— योगनिद्रा कैसी होती है, इसका अनुभव मैंने जीवन में पहली बार किया। ऐसी स्थिति को ही जाग्रत समाधि भी कहते हैं। इस स्थिति में डुबकी लगाते ही एक-एक करके मुझे अपने पिछले तीन जन्मों का दृश्य क्रमशः ऐसा दृष्टिगोचर होने लगा, मानो वह कोई स्वप्न न होकर प्रत्यक्ष घटनाक्रम ही हो। तीन जन्मों की तीन फिल्में आँखों के सामने से गुजर गईं।
पहला जीवन— संत कबीर का; सपत्नीक काशी निवास। धर्मों के नाम पर चल रही विडंबना का आजीवन उच्छेदन। सरल अध्यात्म का प्रतिपादन।
दूसरा जन्म— समर्थ रामदास के रूप में दक्षिण भारत में विच्छृंखलित राष्ट्र को शिवाजी के माध्यम से संगठित करना; स्वतंत्रता हेतु वातावरण बनाना एवं स्थान-स्थान पर व्यायामशालाओं एवं सत्संग भवनों का निर्माण।
तीसरा जन्म— रामकृष्ण परमहंस; सपत्नीक कलकत्ता निवास। इस बार पुनः गृहस्थ में रहकर विवेकानंद जैसे अनेक महापुरुष गढ़ना व उनके माध्यम से संस्कृति के नवजागरण का कार्य संपन्न्न कराना।
आज याद आता है कि जिस सिद्धपुरुष— अंशधर ने हमारी पंद्रह वर्ष की आयु में घर पधारकर पूजा की कोठरी में प्रकाश रूप में दर्शन दिया था, उनका दर्शन करते ही मन-ही-मन तत्काल अनेक प्रश्न सहसा उठ खड़े हुए थे। सद्गुरुओं की तलाश में आमतौर से जिज्ञासुगण मारे-मारे फिरते हैं। जिस-तिस से पूछते हैं। ऐसा लाभ मिलने को अपना भारी सौभाग्य मानते हैं। कोई कामना होती है, तो उसकी पूर्ति के वरदान माँगते हैं। पर अपने साथ जो घटित हो रहा था, वह उसके सर्वथा विपरीत था। महामना मालवीय जी से गायत्री मंत्र की दीक्षा पिताजी ने आठ वर्ष की आयु में ही दिलवा दी थी। उसी को प्राणदीक्षा बताया गया था। गुरु-वरण होने की बात भी वहीं समाप्त हो गई थी। और किसी गुरु के प्राप्त होने की कभी कल्पना भी नहीं उठी। फिर अनायास ही वह लाभ कैसे मिला, जिसके संबंध में अनेक किंवदंतियाँ सुनकर हमें भी आश्चर्यचकित होना पड़ा है।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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